शनिवार, 20 जून 2009

गृहस्थ: एक तपोवन


‘धन्यो गृहस्थाश्रम:’ कहकर हमारे ऋषि-मुनियों ने चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही धन्य कहे जाने योग्य है, ऐसा श्रुति में कहा है। जिस तरह समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी तरह सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं। वस्तुत: किसी भी समाज या राष्ट्र के विकास के लिए परिवार संस्था का स्वस्थ, समर्थ व सशक्त होना जरूरी है। यह सहजीवन के व्यावहारिक शिक्षण की प्रयोगशाला है। बिना किसी बाह्य दण्ड, भय या कानून के चलने वाली संस्था एकमात्र ऐसी संस्था है जो आनुवांशिक संस्कारों एवं पारस्परिक विश्वास पर निर्भर रह, अविच्छृंखल स्थिति में न जाकर सतत गतिशील रहती आयी है। बिना स्वार्थों का त्याग किए सहजीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती एवं त्याग, सहिष्णुता, सेवा की धुरी पर यह संस्था मात्र भारतीय संस्कृति की ही विशेषता है एवं सदा रहेगी।

परमपूज्य गुरुदेव ने गृहस्थाश्रम को समाज का सुनागरिक देने की खान मानते हुए इसे मानते एक आदर्श समाज की अनिवार्य आवश्यकता माना है। मनुष्य की सहज वृत्ति कामवासना को पति-पत्नी में एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यनिष्ठा में परिवर्तित कर कामोपभोग को एक सांस्कृतिक संस्कार बनाकर सामाजिक मूल्य का रूप देना गृहस्थाश्रम की ही देन है। गृहस्थाश्रम कामोपभोग का प्रमाण पत्र नहीं, अपितु संयम-ब्रह्मचर्य मूलक होने का प्रतीक माना गया है।

गृहस्थ तप और त्याग का जीवन कहा गया है। इस धर्म के परिपालन के लिए किया गया कोई भी प्रयास किसी तप से कम नहीं है। गृहस्थ में स्वयं को अपनी वृत्तियों पर अंकुश लगाना पड़ता है। चिकित्सा, भोजन, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए सब प्रबन्धन करने हेतु अपना पेट काट कर सारी व्यवस्था करनी होती है, एक जिम्मेदारी से भरा जीवन जीना पड़ता है। सचमुच गृहस्थाश्रम एक यज्ञ है, जिसमें प्रत्येक सदस्य उदारता पूर्वक सहज ही एक दूसरे के लिए कष्ट सहते हैं, एक दूसरे के लिए त्याग करते हैं। गृहस्थाश्रम समाज के संगठन, मानवीय मूल्यों की स्थापना, समाजनिष्ठा, भौतिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक, मानसिक विकास का भी क्षेत्र है एवं इस प्रकार समाज के व्यवस्थित स्वरूप का मूलाधार है।

श्रेष्ठ संतान, सुसंतति देने की खान गृहस्थ धर्म को ही माना गया है। भक्त, ज्ञानी, सन्त, महात्मा, महापुरुष, विद्वान, पण्डित गृहस्थाश्रम से ही निकल कर आते हैं। उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, ज्ञानवर्धन गृहस्थाश्रम के बीच ही हो पाता है। परिवार के बीच ही महामानव प्रशिक्षण पाकर निकलते व किसी समाज के विकास का निमित्त बन पाते हैं। इसी कारण इस संस्था के महत्त्व को सर्वोपरी बताते हुए पूज्यवर वाङ्मय के इस खण्ड में दामपत्य जीवन के निर्वाह, सफल दाम्पत्य, जीवन के मूलभूत सिद्धान्त, संतानों की संख्या नहीं स्तर बढ़ाया जाय तथा दाम्पत्य जीवन को एक स्वर्ग जैसा मानते हुए वैसा जीवन जिया जाय, इन सभी पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं।

आज इस संस्था में विघटन होता दीख पड़ता है। मध्यकाल में आई कुरीतियों के कारण कच्ची उम्र में विवाह, छूँछ हो गए जीवनी-शक्ति विहीन शरीरों द्वारा कमजोर संततियों को जन्म, लड़का-लड़की में भेद के कारण संतानों की बढ़ती संख्या, पारस्परिक मनोमालिन्य व द्वेष के कारण नारकीय वातावरण, रूप-सज्जा व कामुकता पर अधिक ध्यान होने से विवाहेतर संबंधों में अधिकता, यौन स्वच्छन्दता से लेकर पति-पत्नी दोनों की निजी मनोवैज्ञानिक त्रुटियों के कारण बोझ बन गया गृहस्थी का संसार-यह कुछ ऐसा विकृत स्वरूप है जिस पर आज सर्वाधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। बढ़ती आधुनिकता व फैशन फिजूलखर्ची की होड़ में अधिकाधिक परिवार संस्कार विहीन, दरिद्र एवं सुख-शांति से विहीन होते देखे जा सकते हैं। कैसे वह पुरुषार्थ किया जाय कि संस्कारों को पुनर्जीवित करनेवाली यह संस्था पुन: अपना पूर्व वाला स्वरूप ले सके, यह आग युग पुरुष पूज्य गुरुदेव के अन्त:करण में सतत धधकती रही। उसी आग को सुव्यवस्थित रूप देते हुए उनने वाङ्मय के इस खण्ड में गृहस्थ रूपी तपोवन के मापदण्ड बताए एवं व्यावहारिक तथ्य समझाए हैं।

परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि दाम्पत्य प्रेम एवं सहयोग की सफलता में जब पुरुष को पहल करनी पड़ेगी, क्योंकि चिरअतीत में पुरुषों के अंत:पुरों- हरमों में लाखों स्त्रियों के उत्पीड़न सहे व आँसू बहाते दिन बिताए हैं। वे लिखते हैं कि अब पुरुषों को ही आगे आना होगा, प्रायश्चित करना होगा ताकि इतने लम्बे समय तक शोषण सहती आ रही स्त्रियाँ न्याय पा सकें। परमपूज्य गुरुदेव का नारी जाग्रति अभियान पूर्णत: इसी प्रकार टिका है कि नर न नारी एक ही गाड़ी के दो पहियों की तरह एक साथ मिलकर दायित्व निर्वाह करते हुए एक सफल समर्थ गृहस्थ संस्था का निर्माण कर प्रजातंत्र को सशक्त व रूढ़िवादिता-प्रतिगामिता से मुक्त बनाएँ।

आज समाज में अविवाहित कन्याओं की उम्र भी बढ़ती जाती है एवं संख्या भी। सुयोग्य जोड़ियाँ न मिल पाने के कारण अन्तर्जातीय विवाह के लिए मानसिकता न बन पाने के कारण विवाह प्रक्रिया पश्चिम की तरह एक खिलवाड़ बनती चली जा रही है। एक भारी दायित्व जिसे माना गया है यदि वह कामवासना की पूर्ति का एक माध्यम मात्र बन जायगा तो समाज जीवित कैसे रहेगा-जिम्मेदार नागरिक कहाँ से पैदा होंगे ? यह भी ज्वलन्त प्रश्न ‘गृहस्थ योग’ रूपी इस शोध प्रबन्ध स्तर के खण्ड में रखे व उनके समाधान दिए गए हैं। यह खण्ड आज के टूटते समाज के नैतिक मूल्यों पर करारी चोट कर सामयिक समाधान देता है तथा एक ऐसी व्यवस्था की बात करता है जिससे परिवार संस्था सशक्त, समर्थ बने एवं राष्ट्र पुन: अपनी गौरव-गरिमा को प्राप्त कर सके।
ब्रह्मवर्चस .....
संकलन .......
अनिल महाजन ( पंडागरे )

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