शनिवार, 20 जून 2009

विवाह और दाम्पत्य जीवन का निर्वाह


विवाह खिलवाड़ नहीं, भारी दायित्व है

सड़े-गले विचारों वाले दकियानूसी समुदाय में यह अपेक्षा की जाती है कि विवाह के उपरान्त जल्दी ही सन्तान होनी चाहिए। उसे सौभाग्य समझा जाता है। विवाह हुए कुछ समय निकल जाये और सन्तान न हो तो चिन्ता की जाने लगती है। वधू को बन्ध्या कहकर उस पर दोषारोपण का सिलसिला चल पड़ता है। दूसरा विवाह कर लेने की बात सोची जाने लगती है। खाली गोद नारी को अभागी कहा जाने लगता है। जबकि ऐसे अधिकांश मामलों में पुरुष की दुर्बलता ही आधारभूत कारण होती है। लड़कों में बचपन से ही कुटेबें पड़ जाती हैं और वे अपना पुरुषत्व खो बैठते हैं। ऐसी दशा में पुरुष की हीनता का दोष नारी के सिर पर मढ़ने का रिवाज ही व्यापक होते देखा गया है। जिनके जल्दी-जल्दी कई बच्चे हो जाते हैं उन्हें भाग्यवान कहा जाता है। लड़के हुए तो सोचा जाता है कि कमाई से घर भरेगा। लड़कियाँ होने लगें तो लड़कों की प्रतीक्षा में उस संदर्भ में और भी जल्दबाजी के प्रयोग किये जाते हैं। कई बार तो इसी प्रयोग में ढेरों लड़कियों से घर भर जाता है और उनके लिए जननी को लज्जित-तिरस्कृत किया जाता है।

विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या विवाह के उपरान्त जल्दी ही बच्चे होने चाहिए और उनकी संख्या बढ़ती ही रहनी चीहिए ? समय को देखते हुए यह चिन्तन सर्वथा अनुपयुक्त ही कहा जा सकता है। ईसा के चार हजार वर्ष पूर्व संसार भर में मनुष्य की जनसंख्या पाँच करोड़ के करीब थी। अब वह बढ़कर 600 करोड़ हो गयी है। यह बढ़ोत्तरी यदि इसी चक्रवृद्धि गति से चलती रही तो अगले पचास वर्ष में यह गणना 1000 करोड़ तक पहुँच सकती है।

वर्तमान स्थिति का पर्यवेक्षण करने से पाया गया है कि जितने मनुष्य अभी हैं उनके लिए खाद्य पदार्थ कम पड़ रहे हैं। ईधन बेतहाशा घट रहा है। लकड़ी, कोयला, कोल, बिजली आदि को अधिक मात्रा में उपलब्ध किये जाने की पग-पग पर आवश्यकता अनुभव की जाती है।

बढ़ती हुई आबादी के लिए रोजी, शिक्षा, चिकित्सा, मकान आदि सभी जीवनोपयोगी वस्तुएँ कम पड़ती जाती हैं। अनुमान है कि यह संकट अगले पचास वर्ष में अत्यधिक भयावह रूप धारण कर लेगा। कारखानों की बढ़ोत्तरी से हवा और पानी विषाक्त होता चला जाता है। खाद्य के साथ खनिजों की भी कमी पड़ेगी। धरती का जितना दोहन संभव है, उसकी चरमसीमा पर जा पहुँचा है। जनसंख्या बढ़ते रहने पर दुर्भिक्ष पड़ेंगे। बेरोजगारी, बीमारी, अशिक्षा का अनुपात बढ़ेगा। ऐसी दशा में प्रगति के लिए किये जाने वाले सभी प्रयास ओछे पड़ते जायेंगे। मनुष्य जाति क्रमश: मुसीबत के अधिक गहरे दलदल में फँसती जायगी।

विज्ञजनों की पुकार है कि अब धरती का बोझ न बढ़ाया जाय। सन्तानोत्पादन रोका जाय। इस कारण जो भारी विपत्ति बढ़ रही है उसे यहीं पर विराम दिया जाय। जो समझाने पर नहीं समझते उन्हें कड़ा दण्ड दिया जाय। जिस भी उपाय से प्रजनन रुकता हो उसे काम में लाया जाय। परिवार नियोजन की आवश्यकता जनसाधारण को समझाने के लिए सरकारें विपुल धन खर्च कर रही हैं, पर अनगढ़ों की कमी नहीं। वे अपने लिए स्वयं विपत्ति मोल लेने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह भारी चिन्ता का विषय है और भयानक दुर्गति की संभावना का भी। लगता है कि नासमझी की विकल्प प्रताड़ना ही हो सकती है। भले ही वह शासन द्वारा, समाज द्वारा या प्रकृति द्वारा की जाय।

कुछ समय पहले यह समझा जाता था कि विवाह एक अनिवार्य आवश्यकता है। जिसे हर किसी को करना चाहिए। अरोग्य लड़कियों और लड़को भी किसी प्रकार इस बंधन से बाँध दिया जाता था। विवाह का अर्थ यौनाचार की खुली छूट भी है। यौनाचार का प्रतिफल है सन्तानोत्पादन। यह कर्म चल पड़े तो फिर बहुत समय तक चलती ही रहता है। एक-एक जोड़ा कई-कई सन्तानें जनता है। उनकी संख्या कई बार तो दस बारह तक पहुँचती है। औसत प्रजनन चार-पाँच तक तो होता ही है। इनमें से दो-तीन मर भी जायें तो भी हर पचास वर्ष में आबादी दूनी हो जाती है और फिर वह चक्रवृद्धि दर से बढ़ती है। इनमें से अधिकांश अनपढ़ और अशिक्षित होते हैं।

संकलन .......
अनिल महाजन ( पंडागरे )

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