मंगलवार, 23 जून 2009

हमारी भावी पीढ़ी और उसका नवनिर्माण...आचार्य श्रीराम शर्मा

चरित्रवान माता-पिता ही सुसंस्कृति सन्तान बनाते हैं।
अंग्रेजी में कहावत है—‘‘दि चाइल्ड इज ऐज ओल्ड ऐज हिज एनसेस्टर्स।’’ अर्थात् बच्चा उतना पुराना होता है जितना उसके पूर्वज। एक बार सन्त ईसा के पास आई एक स्त्री ने प्रश्न किया महाराज ! बच्चे की शिक्षा-दीक्षा कब से प्रारम्भ की जानी चाहिए ? ईसा ने उत्तर दिया। गर्भ में आने के 100 वर्ष पहले से। स्त्री भौचक्की रह गई, पर सत्य वही है जिसकी ओर सन्त ईसा ने इंगित किया।

सौ वर्ष पूर्व जिस बच्चे का आस्तित्व नहीं होता, उसकी जड़ तो निश्चित होती है, चाहे वह उसके बाबा हों या परबाबा—उनकी मनः स्थिति, उनके आचार उनकी संस्कृति पिता पर आई और माता-पिता के विचार, उनके रहन-सहन, आहार-विहार से ही बच्चे का निर्माण होता है, कल जिस बच्चे को जन्म लेना है, उसकी भूमिका हम अपने में लिखा करते हैं। यदि यह प्रस्तावना ही उत्कृष्ट न हुई तो बच्चा कैसे श्रेष्ठ बनेगा भगवान राम जैसे महापुरुष का जन्म रघु, अज और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी, तो योगेश्वर कृष्ण का जन्म देवकी और वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या व पुण्य फल था।

अट्ठारह पुराणों के रचयिता व्यास का आविर्भाव तब हुआ था, जब उनकी पाँच पितामह पीढ़ियों ने घोर तप किया था। अपने यहाँ कन्या के वर ढ़ूँढ़ते समय वर के संयोग और उसकी आर्थिक परिस्थितियाँ पीछे जानी जाती हैं, सर्वप्रथम वंश गोत्र से बात प्रारम्भ होती है। उसका मन्तव्य यही होता है कि बालिका किसी दुर्गुण सम्पन्न परिवार में न पड़ जाये। यह सब सन्तति के लिये किया जाता रहा है जो उचित भी रहा है। आज के बच्चे ही कल के नागरिक हैं। कल का सामाजिक सुव्यवस्था, शान्ति, समुन्नति का आधार यह होगा कि हमारे बच्चे श्रेष्ठ, सद्गुणी बनें और इसके लिये मातृत्व और पितृत्व को गम्भीर अर्थ में लिये बिना काम नहीं चलेगा।


सुसंतति-निर्माण का शुभारम्भ कहाँ और कैसे हो

आज के बालक ही कल के विश्व के, इक्कसवीं सदी के नागरिक होंगे। उनका निर्माण उनकी परिपक्व आयु उपलब्ध होने पर नहीं, बाल्यकाल में ही संभव है, जब उनमें संस्कारों का समावेश किया जाता है। संतानोत्पादन के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण उपक्रम है उन्हें बड़ा करना, उन्हें शिक्षा व विद्या दोनों देना तथा संस्कारों से अनुप्राणित कर उनके समग्र विकास को गतिशील बनाना। सद्गुणों की सम्पत्ति ही वह निधि है जो बालकों का सही निर्माण कर सकती है। इसी धुरी पर वाङ्मय का यह खण्ड केंद्रित है।

परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि अन्यान्य पशु, जीव-जन्तु आदि प्रकृति प्रेरणा से ही अपना विकास कर वैसा जीवन जीने लगते हैं जैसा कि शिश्नोदर परायण होने के नाते उन्हें जीना चाहिए। भ्रूण से विकसित होते ही जल की मछली अपना भोजन अपने आप ढूँढ़ लेती है, कुत्ते अपना ठिकाना जमा लेते हैं किंतु अभागे इंसान के बच्चे में इतनी बुद्धि नहीं होती तो वह पास लेटी माँ के स्तन को ढूँढ़ कर अपनी क्षुधा-तृप्ति कर सके। वह तो मात्र रोना जानता है। गीली मिट्टी की तरह वह बच्चा जिस साँचे में ढाला जाएगा, ढलता चला जाता है। बच्चा निश्चित ही कुछ संस्कारों को पूर्व जन्म की संचित निधि के रूप में साथ लाता है, फिर भी उसका विकास बहुत अधिक माता-पिता, शिक्षक, गुरु एवं वातावरण पर निर्भर करता है। उपेक्षा और उदासीनता के द्वारा जिस प्रकार बच्चों को क्रूर एवं निकम्मा बनाया जाता है, उसी प्रकार प्रयत्न और भावनापूर्वक उन्हें तेजस्वी और मनस्वी भी बनाया जा सकता है, प्राचीन काल में यह व्यवस्था थी। प्यार के साथ सुधार की, तप तितिक्षा-योगाभ्यास की व्यवस्था बनी रहने से एक समग्र व्यक्तित्व विकसित होता था।

दुर्भाग्य से अपने देश से वह वातावरण गुरुकुलों, आश्रमों, आरण्यकों के समापन के साथ ही समाप्त होता चला गया, इसीलिए आज हमारी संतति निस्तेज, खोखली होती चली जा रही है। यह हमारी उपेक्षा, वातावरण की विषाक्तता एवं सांस्कृतिक मूल्यों को भूल जाने का ही परिणाम है। भोगवाद की दौड़ में हमने संततियों की उपेक्षा की है, उसी का परिणाम आज हम भोग रहे हैं।

बालक-बालिकाओं के निर्माण में माता का अंश अधिक होता है। पिता तो बिन्दु मात्र का सहयोगी होता है, शेष रचना तो माता ही करती है, नौ माह तक वह अपने गर्भ में अपने जीवन तत्त्व से उसे पालती और जन्म के बाद भी स्तनों द्वारा अपना जीवन तत्त्व पिलाकर अनेक वर्षों तक उसे पालती है। जब तक उसके शरीर व चेतना का विकास नहीं हुआ होता है, वह माता पर निर्भर होता है। भविष्य का सारा स्वरूप गर्भावस्था से किशोरावस्था तक दिए गए शिक्षण के अनुसार ही निर्धारित होता है। वस्तुतः माता जिस तरह के संकल्प और विचार बच्चे में पैदा करती है, वैसे ही उसमें ग्रहण शीलता का आविर्भाव हो जाता है और बाद में उसी तरह के तत्त्व वह संसार में ढूँढ़ कर अपने संस्कारजन्य गुणों में वृद्धि करता चला जाता है। संस्कारवान माताएँ बच्चों के चरित्र की नींव बाल्यावस्था में डालती हैं, जबकि उन्हें दिग्भ्रान्त कर आचरणहीन बनाने में भी मुख्यतः हाथ उन्हीं का होता है।

शिशु-अवस्था वस्तुतः कोरे कागज के समान है। इस कोरे कागज पर चाहे काली स्याही से लिख दें अथवा रंगीन कलाकृति ढाल दें। बालक वस्तुतः उस रूप में ढलता चला जाता है जैसे वह बड़ों को, औरों को करते देखता है। माँ के साथ वह पिता, मित्रों, परिवेश, अपने शिक्षकों को देखता है व उनके आचरण के अनुरूप ही ढलता चला जाता है। परमपूज्य गुरुदेव इस नाजुक अवस्था का विशद् विवेचन कर मनोवैज्ञानिक आधार पर यह प्रतिपादन करने का प्रयास करते हैं कि यदि इस समय का सही उपयोग कर संस्कारों की गहरी छाप डाली जा सके तो जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही नागरिक ढाला जा सकना संभव है। पूज्यवर लिखते हैं कि प्रेम, प्रोत्साहन, सम्मान तथा सुरक्षा की आवश्यकता बड़े से अधिक बच्चों को है। एक अनचाहा उपेक्षित बच्चा एक रोगी व समस्यापूर्ण बच्चा ही नहीं, अपराधी भी बन सकता है। मात्र थोड़े से स्नेह व दुलार-सुधार की समन्वित नीति से बच्चों को वह दिशा दी जा सकती है जिससे वे राष्ट्र के एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें।

वाङ्मय के इस खण्ड में अनेकानेक उदाहरणों के साथ माता-पिता, वातावरण एवं शिक्षा-दीक्षा से बालकों के विकास की प्रक्रिया का विवेचन अनेकानेक प्रतिपादनों के साथ प्रस्तुत किया गया है। बाल मनोविज्ञान पर पूज्यवर की बड़ी गहरी पकड़ दिखाई देती है एवं जन्म से पूर्व से लेकर किशोरावस्था तक के विकास के एक भी पक्ष को उनने छोड़ा नहीं है। निश्चित ही समाज एवं राष्ट्र के नवनिर्माण के विषय में चिन्तित रहने वालों के लिए यह वाङ्मय का एक खण्ड एक बहुमूल्य सामग्री का प्रस्तुतीकरण कर उनका सही मार्गदर्शन करेगा।

सबसे विलक्षणपक्ष तो इसका यह है कि इसमें सभ्यता एवं संस्कृति के समन्वित विकास का बड़ा ही व्यावहारिक प्रस्तुतीकरण है। सभ्यता की दृष्टि से बहिरंग जीवन में कैसा व्यवहार बालकों का होना चाहिए—शालीनता, सुव्यवस्था, समय की पाबन्दी, नागरिकों नियमों का पालन, सहकारिता आदि सद्गुणों को किस कुशलता के साथ बच्चों के जीवन में प्रविष्ठ कराया जाय इसका अमूलचूल शिक्षण इस खण्ड में उपलब्ध है। सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से बच्चों में जिज्ञासा की सहज वृत्ति का समाधान, संवेदनशीलता का जागरण व व्यावहारिक नियोजन, सहृदयता-परमार्थ-परायणता-आस्तिकता, बड़ों के प्रति सम्मान व कृतज्ञता आदि सद्प्रवृत्तियों के दैनन्दिनी जीवन में समावेश का बिन्दुवार शिक्षण इसमें पा सकते हैं।

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि राष्ट्र का आधार है समर्थ सशक्त भावी पीढ़ी, जो संस्कारवान हो। आज के आस्था-संकट व सांस्कृतिक प्रदूषणों के युग में यह एक अनिवार्य आवश्यकता है कि भौतिक विकास के साथ-साथ बालकों के भावनात्मक नवनिर्माण व सर्वांगीण विकास पर भी समान रूप से ध्यान दिया जाय। उस संबंध में क्या किया जाय, कैसे किया जाय, यह समग्र मार्गदर्शन वाङ्मय के इस खण्ड में मिलता है।
-ब्रह्मवर्चस...

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