रविवार, 21 जून 2009

हे भारत उठो जागो


‘‘यह देखो, भारतमाता धीरे-धीरे आँखें खोल रही है।
वह कुछ देर सोयी थी।
उठो, उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमण्डित करके भक्तिभाव से उसे उसके चिरन्तन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो !’’
स्वामी विवेकानन्द
स्वदेश-मंत्र
हे भारत ! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती है; मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं; मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन, और जीवन, इन्द्रिय-सुख के लिए—अपने व्यक्तिगत सुख के लिए—नहीं है, मत भूलना कि तुम जन्म से ही ‘माता’ के लिये बलिस्वरूप रखे गए हो; तुम मत भूलना कि तुम्हारा समा उस विराट महामाया की छाया मात्र है; मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार और मेहतर तुम्हारे रक्त हैं, तुम्हारे भाई हैं। वे वीर ! साहस का आश्रय लो। गर्व से कहो कि मैं भारतवासी दरिदज्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी—सब मेरे भाई हैं, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत की देव-देवियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फुलवारी और मेरे बुढ़ापे की काशी है। भाई, बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण से मेरा कल्याण है; और रात-दिन कहते रहो—‘‘हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे; मुझे मनुष्यत्व दो, माँ ! मेरी दुर्बलता और कामरूपता दूर कर दो। माँ मुझे मनुष्य बना दो।’’
-स्वामी विवेकानन्द
अमृत मंत्र
हे अमृत के अधिकारीगण !
तुम तो ईश्वर की सन्तान हो,
अमर आनन्द के भागीदार हो,
पवित्र और पूर्ण आत्मा हो !
तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो !...
उठो ! आओ ! ऐ सिंहो !
इस मिथ्या भ्रम को झटककर
दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो।
तुम जरा-मरण-रहित नित्यानन्दमय आत्मा हो !
-स्वामी विवेकानन्द

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