छोटे बच्चों के कपड़े किशोरों के लिए फिट नहीं बैठते और किशोरों के लिए सिलवाए गए कपड़ों से प्रौढ़ों का काम नहीं चलता। आयु वृद्धि के साथ-साथ परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। भोजन ताजा बनाने से ही काम चलता है। विद्यार्थी जैसे-जैसे कक्षा चढ़ते जाते हैं, वैसे ही वैसे उन्हें अगले पाठ्यक्रम की पुस्तकें खरीदनी पड़ती है। सर्दी और गर्मी के कपड़े अलग तरह के होते हैं। परिवर्तन होते चलने के साथ, तदनुकूल व्यवस्था बनाते रहना भी एक प्रकार से अनिवार्य है।
समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम निर्धारण भी करने पड़ते हैं। आदिम काल में मनुष्य बिना वस्त्रों के ही रहता था। मध्यकाल में धोती और दुपट्टा दो ही, बिना सिले वस्त्र काम आने लगे थे। प्रारंभ में अनगढ़ औजारों-हथियारों से ही काम चल जाता था। मध्यकाल में भी धनुष बाण और ढाल- तलवार ही युद्ध के प्रमुख उपकरण थे, अब आग्नेयास्त्रों के बिना काम चल ही नहीं सकता। समय के साथ परिस्थितियाँ बदलती हैं और फिर उनके समाधान खोजने पड़ते हैं।
प्राचीनकाल के वर्णाश्रम पर आधारित प्रायः सभी विभाजन बदल गए। अब उसका स्थान नई व्यवस्था ने ले लिया है। दो सौ वर्ष पुराने समय में काम आने वाली पोशाकों का अब कहीं-कहीं प्रदर्शनिकों के रूप में ही अस्तित्व दीख पड़ता है। जब साइकिलें चली थीं तब अगला पहिया बहुत बड़ा और पिछला बहुत छोटा था। अब उनका दर्शन किन्हीं पुरातन प्रदर्शनियों में ही दीख पड़ता है। कुदाली से जमीन खोद कर खेती करना किसी समय खेती का प्रमुख आधार रहा होगा, पर अब तो सुधरे हुए हल ही काम आते हैं। उन्हें जानवरों या मशीनों द्वारा चलाया जाता है। लकड़ियाँ घिसकर आग पैदा करने की प्रथा मध्यकाल में थी, पर अब तो माचिस का प्रचलन हो जाने पर कोई भी उस कष्टसाध्य प्रक्रिया को अपनाने के लिए तैयार न होगा।
विकास क्रम में ऐसे बदलाव अनायास ही प्रस्तुत कर दिए गए हैं। इस परिवर्तन क्रम को रोका नहीं जा सकता। जो पुरानी प्रथाओं पर ही अड़ा रहेगा उसे न केवल घाटा ही घाटा उठाना पड़ेगा, वरन् उपहासास्पद भी बनना पड़ेगा।
मान्यताएँ, विचारणाएँ, निर्धारण और क्रियाकलाप आदि भी समय के परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना रहते नहीं। उनकी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती। धर्मशास्त्र भी समय की मर्यादाओं में बँधे रहे हैं और उनमें प्रस्तुत बदलाव के आधार पर परिवर्तन होते रहे हैं। स्मृतियाँ और सूत्र ग्रंथ भी भिन्न-भिन्न ऋषियों ने अपने समय के अनुसार, नए सिरे से लिखने की आवश्यकता समझी और वह सुधार ही जनजीवन में मान्यता प्राप्त करता रहा। इसका कारण उन निर्माताओं में परस्पर विवाद या विग्रह होना नहीं है, वरन् यह है कि बदलती परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धर्म प्रचलन के स्वरूप में भी भारी हेर-फेर किया गया।
प्राचीनकाल में जमीन में गड्ढा खोदकर गुफाएँ विनिर्मित कर ली जाती थीं। बाद में कुटिया बनाना अधिक सरल और सुविधाजनक लगा। इसके बाद अब तो भूमि संबंधी कठिनाई को देखते हुए, आगे बढ़कर सीमेंट और लोहे के सहारे भवन निर्माण का प्रयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। लकड़ी और गोबर से ईंधन की आवश्यकता पूरी करने की प्रथा पिछले दिनों रही है, पर उनका पर्याप्त मात्रा में न मिलना, इस प्रयास को तेजी से कार्यान्वित कर रहा है कि गोबर गैस या खनिज गैस से काम लिया जाए। जहाँ इफरात है, वहाँ बिजली से भी ईंधन का काम लिया जा रहा है। खनिज तेल भी किसी प्रकार उस आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं। अब तो सूर्य की धूप भी ईंधन की जगह प्रयुक्त होने लगी है। इन परिवर्तनों में आवश्यकता के अनुरूप आविष्कार होते चलने की उक्ति ही सार्थक सिद्ध होती है।
समय पीछे नहीं लौटता, वह निरंतर आगे ही बढ़ता है। उसके साथ ही मान्यताओं में, प्रचलनों में भी परिवर्तन होता चलता है। ऐसा आग्रह कोई कदाचित् ही करता हो, कि जो पहले दिनों माना या किया जाता रहा है, वही पत्थर की तरह सदा सर्वदा जारी रहना चाहिए। ऐसे दुराग्रही तो शायद बिजली का प्रयोग करने और नल का पानी पीने से भी ऐतराज कर सकते हैं ? उन्हें शायद गुफा बनाकर रहने का भी आग्रह हो, क्योंकि पूर्वपुरुषों ने निवास के लिए उसी प्रक्रिया को सरल समझा था।
कभी मिट्टी के खपरों पर लेखन काम लिया जाता था, बाद में चमड़े, भोजपत्र, ताड़पत्र आदि पर लेखन कार्य चलने लगा। कुछ दिनों हाथ का बना कागज भी चला, पर अब तो सर्वत्र मिलों का बना कागज ही काम में आता है। हाथ से ग्रंथों की नकल करने का उपक्रम लंबे समय तक चलता रहा है, पर अब तो छपाई की सरल और सस्ती सुविधाएँ छोड़ने के लिए कोई तैयार नहीं। तब रेल मोटर आदि की आवश्यकता न थी, पर अब तो उनके बिना परिवहन और यातायात का काम नहीं चलता। डाक से पत्र व्यवहार करने की अपेक्षा घोड़ों पर लंबी दूरी पर संदेश भेजने की प्रथा अब एक प्रकार से समाप्त ही हो गई है।
परिवर्तन के साथ जुड़े हुए नए आयाम विकसित करने की आवश्यकता अब इतनी अनिवार्य हो गई है कि उसे अपनाने से कदाचित् ही कोई इनकार करता हो ? घड़ी का उपयोग करने से अब कदाचित् ही कहीं एतराज किया जाता हो ? समय हर किसी को बाधित करता है कि युग धर्म पहचाना जाए और उसे अपनाने में आनाकानी न की जाए। नीति-निष्ठा एवं समाज निष्ठा के संबंध में शाश्वत हो सकता है, पर रीति रिवाजों, क्रिया कलापों, उपकरणों, आदि प्रचलित नियम अनुशासन के संबंध में पुरातन परपाटी के भक्त तो कहे जा सकते हैं, पर अपने अतिरिक्त और किसी को इसके लिए सहमत नहीं कर सकते कि लकीर के फकीर बने रहने में ही धर्म का पालन सन्निहित है, जो पुरातन काल में चलता रहा है, उसमें हेर-फेर करने की बात किसी को सोचनी ही नहीं चाहिए, ऐसा करने को अधर्म कहा जाएगा और उसे करने वाले पर पाप चढ़ेगा।
किसी भी भली-बुरी प्रथा को अपनी ओर पूर्वजों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर उस पर अड़ा और डटा तो रहा जा सकता है, पर उसमें बुद्धिमानी का समावेश तनिक भी नहीं है। मनुष्य प्रगतिशील रहा है और रहेगा। वह सृष्टि के आदि से लेकर अनेक परिवर्तनों के बीच से गुजरता हुआ आज की स्थिति तक पहुँचा है। यह क्रम आगे भी चलता ही रहने वाला है। पुरातन के लिए हठवादी बने रहना किसी भी प्रकार, किसी के लिए भी हितकारी नहीं हो सकता। युग धर्म को अपनाकर ही मनुष्य आगे बढ़ता है और आगे भी उसके लिए तैयार रहेगा। समय का यह ऐसा तकाजा है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता।
गरीबों द्वारा अमीरी का आडम्बर
रोम के एक दार्शनिक के मन में भारत की महत्ता देखने की ललक उठी। समय और धन खर्च करके आए, घूमे और रहे। लौटे तो उदास थे। साथियों ने पूछा तो केवल इतना कहा, ‘‘भारत में जहाँ गरीब अधिकांश रहते हैं, वहाँ भी अमीरों जैसा स्वाँग बनाया जाता है।’’ ऐसा ही कथन एक जापानी शिष्ट मंडल का भी है। उन्होंने भ्रमण के बाद कहा था, यहाँ अमीरी का माहौल है, परंतु उसकी छाया में पिछड़े गए-गुजरे लोग रहते हैं।
प्रश्न उठता है कि ऐसी विडम्बना क्यों कर बन पड़ी ? अमीरों में जो दुर्गुण पाए जाते हैं, वे यहाँ जन-जन में विद्यमान हैं, किंतु प्रगतिशीलों में जो सद्गुण पाए जाने चाहिए, उनका बुरी तरह अभाव है। इस कमी के रहते गरीबी ही नहीं, अशिक्षा, गंदगी, कामचोरी जैसी अनेकों पिछड़ेपन की निशानियाँ बनी ही रहेंगी। वे किसी बाहरी संपत्ति के बलबूते दूर न हो सकेंगी। भूमि की अपनी उर्वरता न रहे, तो बीज बोने वाला, सिंचाई- रखवाली करने वाला भी उपयुक्त परिणाम प्राप्त न कर सकेगा।
मनुष्य की वास्तविक संपदा उसका निजी व्यक्तित्व है। वह जीवंत स्तर का हो तो उसमें वह खेत-उद्यानों की तरह अपने को निहाल करने वाली और दूसरों का मन हुलसाने वाली संपदाएँ प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हो सकती हैं, पर चट्टान पर हरियाली कैसे उगे ? व्यक्तित्व अनायास ही नहीं बन जाता। वह इर्द-गिर्द के वातावरण से अपने लिए प्राणवायु खींचता है। जहाँ विषाक्तता छाई हुई हो, वहाँ साँस लेना तक कठिन हो जाएगा। लंबे समय तक जीवित रहने की बात तो वहाँ बन ही कैसे पड़ेगी ?
लंबे समय तक दुर्बलता के शिकार रहने वालों को धीरे-धीरे कई प्रकार की बीमारियाँ घेरती और दबोचती रहती हैं। छूत की बीमारियाँ एक से दूसरों को लगती और भले चंगों को चपेट में लेती चली जाती हैं। लंबे समय की गुलामी और अवांछनीयता स्तर की मूढ़ मान्यताओं दुष्प्रवृत्तियों के संबंध में भी यही बात है। वे यदि निर्बाध गति से बढ़ती रहें, तो किसी भी समुदाय को खोखला किए बिना नहीं रहतीं।
देश की दरिद्रता प्रख्यात है। अशिक्षा, गंदगी और कुटेबों की बात भी छिपी हुई नहीं है। पर इस बात को समझने में जरा अधिक जोर लगाना पड़ेगा कि भारत में अमीरी का प्रदर्शन क्यों होता है ? यहां अमीरों के साथ जुड़े हुए, प्रमुख दीख पड़ने वाले काले पक्ष को विशेष रूप से देखना होगा। यों इसके अपवाद भी देखे जाते हैं। अमीरी सदा अवांछनीयताएँ ही उत्पन्न नहीं करतीं। सदुपयोग कर सकने वाले, उसका अपने तथा दूसरों के लिए समुचित लाभ भी उठा लेते हैं, पर आमतौर से वैसा कुछ नहीं बन पड़ता।
मंगलवार, 23 जून 2009
युवा क्रान्ति पथ.......
‘युवा क्रान्ति पथ’ पर चलकर राष्ट्रीय जीवन में महापरिवर्तन ला सकते हैं। पर इसकी शुरुआत उन्हें अपने से करनी होगी। अपने अन्तस् में कहीं छुपी-दबी क्रान्ति की चिगांरियों को फिर से दहकाना होगा। व्यवस्थाएँ बदल सकती हैं, विवशताएँ मिट सकती हैं, पर तब जब युवा चेतना में दबी पड़ी क्रान्ति की चिन्गारियाँ महाज्वालाएँ बनें। इनकी विस्फोटक गूंज पूरे राष्ट्र में ध्वनित हो। इनके प्रकाश व ताप को देखकर विश्व कह उठे-युवा भारत जाग उठा है। दुनिया की कोई शक्ति और उसके द्वारा खड़े किए जाने वाले अवरोध अब इसकी राह नहीं रोक सकते।
इस पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति लिखने वाले की अनुभूति में डूबी है। लिखते समय कई अतीत बन चुकी किशोर वय और अभी कुछ ही दूर पीछे छूटी युवावस्था बार- बार चमकी है। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव की कृपा किरणें बार-बार अन्त:करण में क्रान्तिबीज बनकर फूटी हैं। जलते तड़पते हुए हृदय की भावनाओं की स्याही से इसे लिखा गया है। सवाल यह है कि क्या देश के युवा भी इसे भावनाओं में भीग कर पढ़ेंगे ? क्या उनकी तरुणाई कुछ विशेष करने को अकुलाएगी ? इन प्रश्नों के जवाब में कहीं अन्तरिक्ष में ‘हां’ की गूंज सुनायी देती है। अपना अन्तःकरण जितना अनुभव कर पाता है-उससे यही लगता है कि सर्वनियन्ता युग देवता, महाकाल युवाओं को क्रान्तिपथ पर चलाना चाहते हैं।
लेखक अपने विद्यार्थी जीवन से परम पूज्य गुरुदेव के प्रत्यक्ष सान्निध्य में रहा है। उसने दशकों की अवधि उनके साथ-साथ गुजारी है। इस लम्बी अवधि में उसने गुरुदेव के हृदय में उफनते महाक्रान्ति के ज्वार को देखा है। उसने अनुभव किया है-उनके हृदय कुण्ड में धधकती क्रान्तिवह्नि को, जिसमें स्वयं की आहुति दे डालने के लिए उसका मन बार-बार मचला है। सामर्थ्य भर ऐसा किया भी गया है। बारी अब आज के युवाओं की है, जिनसे धरती माता-भारत माता और महा अन्तरिक्ष में व्याप्त भगवान महाकाल उम्मीदें लगाए बैठे हैं। युवा चेतना चेते और अपनी माँ की कोख और उसके दूध की लाज रखे।
स्वार्थ की चिन्ता-से अहं की प्रतिष्ठा से देश और धरती की माँग हमेशा बड़ी होती है। लेखक ने अपने जीवन में यही जाना और सीखा है। युवा चिन्ता न करें। प्रबल वायु बड़े वृक्षों से ही टकराती है। अग्नि को कुरेदने पर वह और भी प्रज्वलित होती है। युवा शक्ति से टकराने वाले अवरोध उसके संकल्प और क्षमता को बढ़ाने का ही साधन बनते हैं। अपना अनुभव पहले भी यही था और आज भी यही है। जब हृदय में पीड़ा होती है, जब मालूम होता है कि प्रकाश कभी न होगा, जब आशा और साहस का प्रायः लोप होता है, तब इस भयंकर आंतरिक-आध्यात्मिक तूफान के बीच गुरुदेव की कृपा की अन्तज्योति चमकती है। हे भारत माता की सन्तानों। यह अन्तर्ज्योति आपके अन्तम् में भी है। इसे निहारें और क्रान्ति पथ पर चल पड़ें। इस पुस्तक के लेखक को अपना साथी सहचर मानें। हम सब साथ-साथ युवा क्रान्ति पथ पर चलें। इसी शुभ भावना के साथ युवा क्रान्ति पथ की प्रत्येक पंक्ति आप सभी को, देश के प्रत्येक नवयुवक-नवयुवती को अर्पित है। आपकी क्रान्ति की चिन्गारियाँ कल की महाक्रान्ति की ज्वालाएँ बनेंगी, इसकी प्रतीक्षा है।
डॉ. प्रणव पण्डया
युवा शक्ति
संवेदना और साहस की सघनता में युवा शक्ति प्रज्वलित होती है। जहाँ भाव छलकते हों और साहस मचलता हो, समझो वही यौवन के अंगारे शक्ति की धधकती ज्वालाओं में बदलने के लिए तत्पर हैं। विपरीताएँ इसे प्रेरित करती हैं, विषमताओं से इसे उत्साह मिलता है। समस्याओं के संवेदन इसमें नयी ऊर्जा का संचार करते हैं। काल की कुटिल व्यूह रचनाओं की छुअन से यह और अधिक उफनती है और तब तक नहीं थमती, जब तक कि यह इन्हें पूरी तरह से छिन्न-भिनन न कर दे।
हारे मन और थके तन से कोई कभी युवा नहीं होता, फिर भले ही उसकी आयु कुछ भी क्यों न हो ? यौवन तो वही है, जहां शक्ति का तूफान अपनी सम्पूर्ण प्रचण्डता से सक्रिय है। जो अपने महावेग से समस्याओं के गिरि-शिखरों को ढहाता, विषमताओं के महावटों को उखाड़ता और विपरीतताओं के खाई खड्ढों को पाटता चलता है। ऐसा क्या है ? जो युवा न कर सके ? ऐसी कौन सी मुश्किल है, जो उसकी शक्ति को थाम ले ? अरे वह युवा शक्ति ही क्या, जिसे कोई अवरोध रोक ले।
समस्याओं की परिधि व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, सामाजिक-राष्ट्रीय हो अथवा वैश्विक, युवा शक्ति इनका समाधान करने में कभी नहीं हारी है। रानी लक्ष्मीबाई, वीर सुभाष, स्वामी विवेकानन्द, शहीद भगतसिंह के रूप में इसके अनगिन आयाम प्रकट हुए हैं। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। देह का महाबल, प्रतिभा की पराकाष्ठा, आत्मा का परम तेज और सबसे बढ़कर महान उद्देश्यों के लिए इन सभी को न्यौछावर करने के बलिदानी साहस से युवा शक्ति ने सदा असम्भव को सम्भव किया है। इनकी एक हुकांर से साम्राज्य सिमटे हैं, राजसिंहासन भूलुंठित हुए हैं और नयी व्यवस्थाओं का नवोदय हुआ है।
सचमुच ही यौवन भगवती महाशक्ति का वरदान है। यहां वह अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ प्रदीप्त होती है। दुष्ट दलन, सद्गुण पोषण एवं कलाओं के सौन्दर्य सृजन के सभी रुप यहीं प्रकट होते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि यौवन में शक्ति के महानुदान मिलते तो सभी को हैं, पर टिकते वहीं हैं, जहां इनका सदुपयोग होता है। जरा सा दुरुपयोग होते ही शक्ति यौवन की संहारक बन जाती है। कालिख की अंधेरी कालिमा में इसकी प्रभा विलीन होने लगती है। इसलिए युवा जीवन की शक्ति सम्पन्नता सार्थक यौवन में ही संवर्धित हो पाती है।
सार्थक यौवन के लिए चाहिए आध्यात्मिक दृष्टि
युवा जीवन सभी को मिलता है, पर सार्थक यौवन विरले पाते हैं। शरीर की बारीकियों के जानकार चिकित्सा विशेषज्ञ युवा जीवन को कतिपय जैव रासायनिक परिवर्तनों का खेल मानते हैं। ये परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटित होते हैं। उम्र एक खास पड़ाव को छूते ही इन परिवर्तनों का सिलसिला शुरु हो जाता है और कई सालों तक लगातार जारी रहता है। विशेषज्ञों ने कई ग्रंथों में इन सूक्ष्म रासायनिक परिवर्तनों की कथा लिखी है। उनके अनुसार 15 वर्ष की आयु से 35 वर्ष की आयु युवा जीवन की है। पैंतीस साल की आयु पूरी होते ही यौवन ढलने लगता है और फिर प्रौढ़ता परिपक्वता की श्वेत छाया जीवन को छूने लगती है। लगभग बीस वर्षों का यह आयु काल यौवन का है।
इसे कैसे बिताएँ, यह स्वयं पर निर्भर है।
युवा जीवन प्रारम्भ होते ही शारीरिक परिवर्तनों की ही भाँति कई तरह के मानसिक परिवर्तन भी होते हैं। जिनके आरोह-अवरोह का लेखा-जोखा मनोवैज्ञानिकों ने किया है। उनके अनुसार यह भावनात्मक एवं वैचारिक संक्रान्ति का काल है। इस अवधि में कई तरह के भाव एवं विचार उफनते हैं। अनेकों उद्वेग एवं आवेग उमड़ते हैं। कई तरह के अन्तर्विरोधों एवं विद्रोहों का तूफानी सिलसिला अंतस् में चलता रहता है। शक्ति के प्रचण्ड ज्वार उभरते एवं विलीन होते हैं। यह सब कुछ इतनी तीव्र गति से होता है कि स्थिरता खोती नजर आती है। अपनी अनेकों मत भिन्नओं के बावजूद सभी मनोविशेषज्ञ युवा जीवन की संक्रान्ति संवेदनाओं के बारे में एक मत हैं। सबका यही मानना है कि युवा जीवन की विशेषताओं को शक्तियों को, आवेगों को यदि सँवारा न गया, तो जीवन की लय कुण्ठित हो सकती है। यौवन की सरगम बेसुरे चीत्कार में बदल सकती है।
इस पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति लिखने वाले की अनुभूति में डूबी है। लिखते समय कई अतीत बन चुकी किशोर वय और अभी कुछ ही दूर पीछे छूटी युवावस्था बार- बार चमकी है। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव की कृपा किरणें बार-बार अन्त:करण में क्रान्तिबीज बनकर फूटी हैं। जलते तड़पते हुए हृदय की भावनाओं की स्याही से इसे लिखा गया है। सवाल यह है कि क्या देश के युवा भी इसे भावनाओं में भीग कर पढ़ेंगे ? क्या उनकी तरुणाई कुछ विशेष करने को अकुलाएगी ? इन प्रश्नों के जवाब में कहीं अन्तरिक्ष में ‘हां’ की गूंज सुनायी देती है। अपना अन्तःकरण जितना अनुभव कर पाता है-उससे यही लगता है कि सर्वनियन्ता युग देवता, महाकाल युवाओं को क्रान्तिपथ पर चलाना चाहते हैं।
लेखक अपने विद्यार्थी जीवन से परम पूज्य गुरुदेव के प्रत्यक्ष सान्निध्य में रहा है। उसने दशकों की अवधि उनके साथ-साथ गुजारी है। इस लम्बी अवधि में उसने गुरुदेव के हृदय में उफनते महाक्रान्ति के ज्वार को देखा है। उसने अनुभव किया है-उनके हृदय कुण्ड में धधकती क्रान्तिवह्नि को, जिसमें स्वयं की आहुति दे डालने के लिए उसका मन बार-बार मचला है। सामर्थ्य भर ऐसा किया भी गया है। बारी अब आज के युवाओं की है, जिनसे धरती माता-भारत माता और महा अन्तरिक्ष में व्याप्त भगवान महाकाल उम्मीदें लगाए बैठे हैं। युवा चेतना चेते और अपनी माँ की कोख और उसके दूध की लाज रखे।
स्वार्थ की चिन्ता-से अहं की प्रतिष्ठा से देश और धरती की माँग हमेशा बड़ी होती है। लेखक ने अपने जीवन में यही जाना और सीखा है। युवा चिन्ता न करें। प्रबल वायु बड़े वृक्षों से ही टकराती है। अग्नि को कुरेदने पर वह और भी प्रज्वलित होती है। युवा शक्ति से टकराने वाले अवरोध उसके संकल्प और क्षमता को बढ़ाने का ही साधन बनते हैं। अपना अनुभव पहले भी यही था और आज भी यही है। जब हृदय में पीड़ा होती है, जब मालूम होता है कि प्रकाश कभी न होगा, जब आशा और साहस का प्रायः लोप होता है, तब इस भयंकर आंतरिक-आध्यात्मिक तूफान के बीच गुरुदेव की कृपा की अन्तज्योति चमकती है। हे भारत माता की सन्तानों। यह अन्तर्ज्योति आपके अन्तम् में भी है। इसे निहारें और क्रान्ति पथ पर चल पड़ें। इस पुस्तक के लेखक को अपना साथी सहचर मानें। हम सब साथ-साथ युवा क्रान्ति पथ पर चलें। इसी शुभ भावना के साथ युवा क्रान्ति पथ की प्रत्येक पंक्ति आप सभी को, देश के प्रत्येक नवयुवक-नवयुवती को अर्पित है। आपकी क्रान्ति की चिन्गारियाँ कल की महाक्रान्ति की ज्वालाएँ बनेंगी, इसकी प्रतीक्षा है।
डॉ. प्रणव पण्डया
युवा शक्ति
संवेदना और साहस की सघनता में युवा शक्ति प्रज्वलित होती है। जहाँ भाव छलकते हों और साहस मचलता हो, समझो वही यौवन के अंगारे शक्ति की धधकती ज्वालाओं में बदलने के लिए तत्पर हैं। विपरीताएँ इसे प्रेरित करती हैं, विषमताओं से इसे उत्साह मिलता है। समस्याओं के संवेदन इसमें नयी ऊर्जा का संचार करते हैं। काल की कुटिल व्यूह रचनाओं की छुअन से यह और अधिक उफनती है और तब तक नहीं थमती, जब तक कि यह इन्हें पूरी तरह से छिन्न-भिनन न कर दे।
हारे मन और थके तन से कोई कभी युवा नहीं होता, फिर भले ही उसकी आयु कुछ भी क्यों न हो ? यौवन तो वही है, जहां शक्ति का तूफान अपनी सम्पूर्ण प्रचण्डता से सक्रिय है। जो अपने महावेग से समस्याओं के गिरि-शिखरों को ढहाता, विषमताओं के महावटों को उखाड़ता और विपरीतताओं के खाई खड्ढों को पाटता चलता है। ऐसा क्या है ? जो युवा न कर सके ? ऐसी कौन सी मुश्किल है, जो उसकी शक्ति को थाम ले ? अरे वह युवा शक्ति ही क्या, जिसे कोई अवरोध रोक ले।
समस्याओं की परिधि व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, सामाजिक-राष्ट्रीय हो अथवा वैश्विक, युवा शक्ति इनका समाधान करने में कभी नहीं हारी है। रानी लक्ष्मीबाई, वीर सुभाष, स्वामी विवेकानन्द, शहीद भगतसिंह के रूप में इसके अनगिन आयाम प्रकट हुए हैं। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। देह का महाबल, प्रतिभा की पराकाष्ठा, आत्मा का परम तेज और सबसे बढ़कर महान उद्देश्यों के लिए इन सभी को न्यौछावर करने के बलिदानी साहस से युवा शक्ति ने सदा असम्भव को सम्भव किया है। इनकी एक हुकांर से साम्राज्य सिमटे हैं, राजसिंहासन भूलुंठित हुए हैं और नयी व्यवस्थाओं का नवोदय हुआ है।
सचमुच ही यौवन भगवती महाशक्ति का वरदान है। यहां वह अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ प्रदीप्त होती है। दुष्ट दलन, सद्गुण पोषण एवं कलाओं के सौन्दर्य सृजन के सभी रुप यहीं प्रकट होते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि यौवन में शक्ति के महानुदान मिलते तो सभी को हैं, पर टिकते वहीं हैं, जहां इनका सदुपयोग होता है। जरा सा दुरुपयोग होते ही शक्ति यौवन की संहारक बन जाती है। कालिख की अंधेरी कालिमा में इसकी प्रभा विलीन होने लगती है। इसलिए युवा जीवन की शक्ति सम्पन्नता सार्थक यौवन में ही संवर्धित हो पाती है।
सार्थक यौवन के लिए चाहिए आध्यात्मिक दृष्टि
युवा जीवन सभी को मिलता है, पर सार्थक यौवन विरले पाते हैं। शरीर की बारीकियों के जानकार चिकित्सा विशेषज्ञ युवा जीवन को कतिपय जैव रासायनिक परिवर्तनों का खेल मानते हैं। ये परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटित होते हैं। उम्र एक खास पड़ाव को छूते ही इन परिवर्तनों का सिलसिला शुरु हो जाता है और कई सालों तक लगातार जारी रहता है। विशेषज्ञों ने कई ग्रंथों में इन सूक्ष्म रासायनिक परिवर्तनों की कथा लिखी है। उनके अनुसार 15 वर्ष की आयु से 35 वर्ष की आयु युवा जीवन की है। पैंतीस साल की आयु पूरी होते ही यौवन ढलने लगता है और फिर प्रौढ़ता परिपक्वता की श्वेत छाया जीवन को छूने लगती है। लगभग बीस वर्षों का यह आयु काल यौवन का है।
इसे कैसे बिताएँ, यह स्वयं पर निर्भर है।
युवा जीवन प्रारम्भ होते ही शारीरिक परिवर्तनों की ही भाँति कई तरह के मानसिक परिवर्तन भी होते हैं। जिनके आरोह-अवरोह का लेखा-जोखा मनोवैज्ञानिकों ने किया है। उनके अनुसार यह भावनात्मक एवं वैचारिक संक्रान्ति का काल है। इस अवधि में कई तरह के भाव एवं विचार उफनते हैं। अनेकों उद्वेग एवं आवेग उमड़ते हैं। कई तरह के अन्तर्विरोधों एवं विद्रोहों का तूफानी सिलसिला अंतस् में चलता रहता है। शक्ति के प्रचण्ड ज्वार उभरते एवं विलीन होते हैं। यह सब कुछ इतनी तीव्र गति से होता है कि स्थिरता खोती नजर आती है। अपनी अनेकों मत भिन्नओं के बावजूद सभी मनोविशेषज्ञ युवा जीवन की संक्रान्ति संवेदनाओं के बारे में एक मत हैं। सबका यही मानना है कि युवा जीवन की विशेषताओं को शक्तियों को, आवेगों को यदि सँवारा न गया, तो जीवन की लय कुण्ठित हो सकती है। यौवन की सरगम बेसुरे चीत्कार में बदल सकती है।
हमारी भावी पीढ़ी और उसका नवनिर्माण...आचार्य श्रीराम शर्मा
चरित्रवान माता-पिता ही सुसंस्कृति सन्तान बनाते हैं।
अंग्रेजी में कहावत है—‘‘दि चाइल्ड इज ऐज ओल्ड ऐज हिज एनसेस्टर्स।’’ अर्थात् बच्चा उतना पुराना होता है जितना उसके पूर्वज। एक बार सन्त ईसा के पास आई एक स्त्री ने प्रश्न किया महाराज ! बच्चे की शिक्षा-दीक्षा कब से प्रारम्भ की जानी चाहिए ? ईसा ने उत्तर दिया। गर्भ में आने के 100 वर्ष पहले से। स्त्री भौचक्की रह गई, पर सत्य वही है जिसकी ओर सन्त ईसा ने इंगित किया।
सौ वर्ष पूर्व जिस बच्चे का आस्तित्व नहीं होता, उसकी जड़ तो निश्चित होती है, चाहे वह उसके बाबा हों या परबाबा—उनकी मनः स्थिति, उनके आचार उनकी संस्कृति पिता पर आई और माता-पिता के विचार, उनके रहन-सहन, आहार-विहार से ही बच्चे का निर्माण होता है, कल जिस बच्चे को जन्म लेना है, उसकी भूमिका हम अपने में लिखा करते हैं। यदि यह प्रस्तावना ही उत्कृष्ट न हुई तो बच्चा कैसे श्रेष्ठ बनेगा भगवान राम जैसे महापुरुष का जन्म रघु, अज और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी, तो योगेश्वर कृष्ण का जन्म देवकी और वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या व पुण्य फल था।
अट्ठारह पुराणों के रचयिता व्यास का आविर्भाव तब हुआ था, जब उनकी पाँच पितामह पीढ़ियों ने घोर तप किया था। अपने यहाँ कन्या के वर ढ़ूँढ़ते समय वर के संयोग और उसकी आर्थिक परिस्थितियाँ पीछे जानी जाती हैं, सर्वप्रथम वंश गोत्र से बात प्रारम्भ होती है। उसका मन्तव्य यही होता है कि बालिका किसी दुर्गुण सम्पन्न परिवार में न पड़ जाये। यह सब सन्तति के लिये किया जाता रहा है जो उचित भी रहा है। आज के बच्चे ही कल के नागरिक हैं। कल का सामाजिक सुव्यवस्था, शान्ति, समुन्नति का आधार यह होगा कि हमारे बच्चे श्रेष्ठ, सद्गुणी बनें और इसके लिये मातृत्व और पितृत्व को गम्भीर अर्थ में लिये बिना काम नहीं चलेगा।
सुसंतति-निर्माण का शुभारम्भ कहाँ और कैसे हो
आज के बालक ही कल के विश्व के, इक्कसवीं सदी के नागरिक होंगे। उनका निर्माण उनकी परिपक्व आयु उपलब्ध होने पर नहीं, बाल्यकाल में ही संभव है, जब उनमें संस्कारों का समावेश किया जाता है। संतानोत्पादन के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण उपक्रम है उन्हें बड़ा करना, उन्हें शिक्षा व विद्या दोनों देना तथा संस्कारों से अनुप्राणित कर उनके समग्र विकास को गतिशील बनाना। सद्गुणों की सम्पत्ति ही वह निधि है जो बालकों का सही निर्माण कर सकती है। इसी धुरी पर वाङ्मय का यह खण्ड केंद्रित है।
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि अन्यान्य पशु, जीव-जन्तु आदि प्रकृति प्रेरणा से ही अपना विकास कर वैसा जीवन जीने लगते हैं जैसा कि शिश्नोदर परायण होने के नाते उन्हें जीना चाहिए। भ्रूण से विकसित होते ही जल की मछली अपना भोजन अपने आप ढूँढ़ लेती है, कुत्ते अपना ठिकाना जमा लेते हैं किंतु अभागे इंसान के बच्चे में इतनी बुद्धि नहीं होती तो वह पास लेटी माँ के स्तन को ढूँढ़ कर अपनी क्षुधा-तृप्ति कर सके। वह तो मात्र रोना जानता है। गीली मिट्टी की तरह वह बच्चा जिस साँचे में ढाला जाएगा, ढलता चला जाता है। बच्चा निश्चित ही कुछ संस्कारों को पूर्व जन्म की संचित निधि के रूप में साथ लाता है, फिर भी उसका विकास बहुत अधिक माता-पिता, शिक्षक, गुरु एवं वातावरण पर निर्भर करता है। उपेक्षा और उदासीनता के द्वारा जिस प्रकार बच्चों को क्रूर एवं निकम्मा बनाया जाता है, उसी प्रकार प्रयत्न और भावनापूर्वक उन्हें तेजस्वी और मनस्वी भी बनाया जा सकता है, प्राचीन काल में यह व्यवस्था थी। प्यार के साथ सुधार की, तप तितिक्षा-योगाभ्यास की व्यवस्था बनी रहने से एक समग्र व्यक्तित्व विकसित होता था।
दुर्भाग्य से अपने देश से वह वातावरण गुरुकुलों, आश्रमों, आरण्यकों के समापन के साथ ही समाप्त होता चला गया, इसीलिए आज हमारी संतति निस्तेज, खोखली होती चली जा रही है। यह हमारी उपेक्षा, वातावरण की विषाक्तता एवं सांस्कृतिक मूल्यों को भूल जाने का ही परिणाम है। भोगवाद की दौड़ में हमने संततियों की उपेक्षा की है, उसी का परिणाम आज हम भोग रहे हैं।
बालक-बालिकाओं के निर्माण में माता का अंश अधिक होता है। पिता तो बिन्दु मात्र का सहयोगी होता है, शेष रचना तो माता ही करती है, नौ माह तक वह अपने गर्भ में अपने जीवन तत्त्व से उसे पालती और जन्म के बाद भी स्तनों द्वारा अपना जीवन तत्त्व पिलाकर अनेक वर्षों तक उसे पालती है। जब तक उसके शरीर व चेतना का विकास नहीं हुआ होता है, वह माता पर निर्भर होता है। भविष्य का सारा स्वरूप गर्भावस्था से किशोरावस्था तक दिए गए शिक्षण के अनुसार ही निर्धारित होता है। वस्तुतः माता जिस तरह के संकल्प और विचार बच्चे में पैदा करती है, वैसे ही उसमें ग्रहण शीलता का आविर्भाव हो जाता है और बाद में उसी तरह के तत्त्व वह संसार में ढूँढ़ कर अपने संस्कारजन्य गुणों में वृद्धि करता चला जाता है। संस्कारवान माताएँ बच्चों के चरित्र की नींव बाल्यावस्था में डालती हैं, जबकि उन्हें दिग्भ्रान्त कर आचरणहीन बनाने में भी मुख्यतः हाथ उन्हीं का होता है।
शिशु-अवस्था वस्तुतः कोरे कागज के समान है। इस कोरे कागज पर चाहे काली स्याही से लिख दें अथवा रंगीन कलाकृति ढाल दें। बालक वस्तुतः उस रूप में ढलता चला जाता है जैसे वह बड़ों को, औरों को करते देखता है। माँ के साथ वह पिता, मित्रों, परिवेश, अपने शिक्षकों को देखता है व उनके आचरण के अनुरूप ही ढलता चला जाता है। परमपूज्य गुरुदेव इस नाजुक अवस्था का विशद् विवेचन कर मनोवैज्ञानिक आधार पर यह प्रतिपादन करने का प्रयास करते हैं कि यदि इस समय का सही उपयोग कर संस्कारों की गहरी छाप डाली जा सके तो जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही नागरिक ढाला जा सकना संभव है। पूज्यवर लिखते हैं कि प्रेम, प्रोत्साहन, सम्मान तथा सुरक्षा की आवश्यकता बड़े से अधिक बच्चों को है। एक अनचाहा उपेक्षित बच्चा एक रोगी व समस्यापूर्ण बच्चा ही नहीं, अपराधी भी बन सकता है। मात्र थोड़े से स्नेह व दुलार-सुधार की समन्वित नीति से बच्चों को वह दिशा दी जा सकती है जिससे वे राष्ट्र के एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें।
वाङ्मय के इस खण्ड में अनेकानेक उदाहरणों के साथ माता-पिता, वातावरण एवं शिक्षा-दीक्षा से बालकों के विकास की प्रक्रिया का विवेचन अनेकानेक प्रतिपादनों के साथ प्रस्तुत किया गया है। बाल मनोविज्ञान पर पूज्यवर की बड़ी गहरी पकड़ दिखाई देती है एवं जन्म से पूर्व से लेकर किशोरावस्था तक के विकास के एक भी पक्ष को उनने छोड़ा नहीं है। निश्चित ही समाज एवं राष्ट्र के नवनिर्माण के विषय में चिन्तित रहने वालों के लिए यह वाङ्मय का एक खण्ड एक बहुमूल्य सामग्री का प्रस्तुतीकरण कर उनका सही मार्गदर्शन करेगा।
सबसे विलक्षणपक्ष तो इसका यह है कि इसमें सभ्यता एवं संस्कृति के समन्वित विकास का बड़ा ही व्यावहारिक प्रस्तुतीकरण है। सभ्यता की दृष्टि से बहिरंग जीवन में कैसा व्यवहार बालकों का होना चाहिए—शालीनता, सुव्यवस्था, समय की पाबन्दी, नागरिकों नियमों का पालन, सहकारिता आदि सद्गुणों को किस कुशलता के साथ बच्चों के जीवन में प्रविष्ठ कराया जाय इसका अमूलचूल शिक्षण इस खण्ड में उपलब्ध है। सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से बच्चों में जिज्ञासा की सहज वृत्ति का समाधान, संवेदनशीलता का जागरण व व्यावहारिक नियोजन, सहृदयता-परमार्थ-परायणता-आस्तिकता, बड़ों के प्रति सम्मान व कृतज्ञता आदि सद्प्रवृत्तियों के दैनन्दिनी जीवन में समावेश का बिन्दुवार शिक्षण इसमें पा सकते हैं।
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि राष्ट्र का आधार है समर्थ सशक्त भावी पीढ़ी, जो संस्कारवान हो। आज के आस्था-संकट व सांस्कृतिक प्रदूषणों के युग में यह एक अनिवार्य आवश्यकता है कि भौतिक विकास के साथ-साथ बालकों के भावनात्मक नवनिर्माण व सर्वांगीण विकास पर भी समान रूप से ध्यान दिया जाय। उस संबंध में क्या किया जाय, कैसे किया जाय, यह समग्र मार्गदर्शन वाङ्मय के इस खण्ड में मिलता है।
-ब्रह्मवर्चस...
अंग्रेजी में कहावत है—‘‘दि चाइल्ड इज ऐज ओल्ड ऐज हिज एनसेस्टर्स।’’ अर्थात् बच्चा उतना पुराना होता है जितना उसके पूर्वज। एक बार सन्त ईसा के पास आई एक स्त्री ने प्रश्न किया महाराज ! बच्चे की शिक्षा-दीक्षा कब से प्रारम्भ की जानी चाहिए ? ईसा ने उत्तर दिया। गर्भ में आने के 100 वर्ष पहले से। स्त्री भौचक्की रह गई, पर सत्य वही है जिसकी ओर सन्त ईसा ने इंगित किया।
सौ वर्ष पूर्व जिस बच्चे का आस्तित्व नहीं होता, उसकी जड़ तो निश्चित होती है, चाहे वह उसके बाबा हों या परबाबा—उनकी मनः स्थिति, उनके आचार उनकी संस्कृति पिता पर आई और माता-पिता के विचार, उनके रहन-सहन, आहार-विहार से ही बच्चे का निर्माण होता है, कल जिस बच्चे को जन्म लेना है, उसकी भूमिका हम अपने में लिखा करते हैं। यदि यह प्रस्तावना ही उत्कृष्ट न हुई तो बच्चा कैसे श्रेष्ठ बनेगा भगवान राम जैसे महापुरुष का जन्म रघु, अज और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी, तो योगेश्वर कृष्ण का जन्म देवकी और वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या व पुण्य फल था।
अट्ठारह पुराणों के रचयिता व्यास का आविर्भाव तब हुआ था, जब उनकी पाँच पितामह पीढ़ियों ने घोर तप किया था। अपने यहाँ कन्या के वर ढ़ूँढ़ते समय वर के संयोग और उसकी आर्थिक परिस्थितियाँ पीछे जानी जाती हैं, सर्वप्रथम वंश गोत्र से बात प्रारम्भ होती है। उसका मन्तव्य यही होता है कि बालिका किसी दुर्गुण सम्पन्न परिवार में न पड़ जाये। यह सब सन्तति के लिये किया जाता रहा है जो उचित भी रहा है। आज के बच्चे ही कल के नागरिक हैं। कल का सामाजिक सुव्यवस्था, शान्ति, समुन्नति का आधार यह होगा कि हमारे बच्चे श्रेष्ठ, सद्गुणी बनें और इसके लिये मातृत्व और पितृत्व को गम्भीर अर्थ में लिये बिना काम नहीं चलेगा।
सुसंतति-निर्माण का शुभारम्भ कहाँ और कैसे हो
आज के बालक ही कल के विश्व के, इक्कसवीं सदी के नागरिक होंगे। उनका निर्माण उनकी परिपक्व आयु उपलब्ध होने पर नहीं, बाल्यकाल में ही संभव है, जब उनमें संस्कारों का समावेश किया जाता है। संतानोत्पादन के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण उपक्रम है उन्हें बड़ा करना, उन्हें शिक्षा व विद्या दोनों देना तथा संस्कारों से अनुप्राणित कर उनके समग्र विकास को गतिशील बनाना। सद्गुणों की सम्पत्ति ही वह निधि है जो बालकों का सही निर्माण कर सकती है। इसी धुरी पर वाङ्मय का यह खण्ड केंद्रित है।
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि अन्यान्य पशु, जीव-जन्तु आदि प्रकृति प्रेरणा से ही अपना विकास कर वैसा जीवन जीने लगते हैं जैसा कि शिश्नोदर परायण होने के नाते उन्हें जीना चाहिए। भ्रूण से विकसित होते ही जल की मछली अपना भोजन अपने आप ढूँढ़ लेती है, कुत्ते अपना ठिकाना जमा लेते हैं किंतु अभागे इंसान के बच्चे में इतनी बुद्धि नहीं होती तो वह पास लेटी माँ के स्तन को ढूँढ़ कर अपनी क्षुधा-तृप्ति कर सके। वह तो मात्र रोना जानता है। गीली मिट्टी की तरह वह बच्चा जिस साँचे में ढाला जाएगा, ढलता चला जाता है। बच्चा निश्चित ही कुछ संस्कारों को पूर्व जन्म की संचित निधि के रूप में साथ लाता है, फिर भी उसका विकास बहुत अधिक माता-पिता, शिक्षक, गुरु एवं वातावरण पर निर्भर करता है। उपेक्षा और उदासीनता के द्वारा जिस प्रकार बच्चों को क्रूर एवं निकम्मा बनाया जाता है, उसी प्रकार प्रयत्न और भावनापूर्वक उन्हें तेजस्वी और मनस्वी भी बनाया जा सकता है, प्राचीन काल में यह व्यवस्था थी। प्यार के साथ सुधार की, तप तितिक्षा-योगाभ्यास की व्यवस्था बनी रहने से एक समग्र व्यक्तित्व विकसित होता था।
दुर्भाग्य से अपने देश से वह वातावरण गुरुकुलों, आश्रमों, आरण्यकों के समापन के साथ ही समाप्त होता चला गया, इसीलिए आज हमारी संतति निस्तेज, खोखली होती चली जा रही है। यह हमारी उपेक्षा, वातावरण की विषाक्तता एवं सांस्कृतिक मूल्यों को भूल जाने का ही परिणाम है। भोगवाद की दौड़ में हमने संततियों की उपेक्षा की है, उसी का परिणाम आज हम भोग रहे हैं।
बालक-बालिकाओं के निर्माण में माता का अंश अधिक होता है। पिता तो बिन्दु मात्र का सहयोगी होता है, शेष रचना तो माता ही करती है, नौ माह तक वह अपने गर्भ में अपने जीवन तत्त्व से उसे पालती और जन्म के बाद भी स्तनों द्वारा अपना जीवन तत्त्व पिलाकर अनेक वर्षों तक उसे पालती है। जब तक उसके शरीर व चेतना का विकास नहीं हुआ होता है, वह माता पर निर्भर होता है। भविष्य का सारा स्वरूप गर्भावस्था से किशोरावस्था तक दिए गए शिक्षण के अनुसार ही निर्धारित होता है। वस्तुतः माता जिस तरह के संकल्प और विचार बच्चे में पैदा करती है, वैसे ही उसमें ग्रहण शीलता का आविर्भाव हो जाता है और बाद में उसी तरह के तत्त्व वह संसार में ढूँढ़ कर अपने संस्कारजन्य गुणों में वृद्धि करता चला जाता है। संस्कारवान माताएँ बच्चों के चरित्र की नींव बाल्यावस्था में डालती हैं, जबकि उन्हें दिग्भ्रान्त कर आचरणहीन बनाने में भी मुख्यतः हाथ उन्हीं का होता है।
शिशु-अवस्था वस्तुतः कोरे कागज के समान है। इस कोरे कागज पर चाहे काली स्याही से लिख दें अथवा रंगीन कलाकृति ढाल दें। बालक वस्तुतः उस रूप में ढलता चला जाता है जैसे वह बड़ों को, औरों को करते देखता है। माँ के साथ वह पिता, मित्रों, परिवेश, अपने शिक्षकों को देखता है व उनके आचरण के अनुरूप ही ढलता चला जाता है। परमपूज्य गुरुदेव इस नाजुक अवस्था का विशद् विवेचन कर मनोवैज्ञानिक आधार पर यह प्रतिपादन करने का प्रयास करते हैं कि यदि इस समय का सही उपयोग कर संस्कारों की गहरी छाप डाली जा सके तो जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही नागरिक ढाला जा सकना संभव है। पूज्यवर लिखते हैं कि प्रेम, प्रोत्साहन, सम्मान तथा सुरक्षा की आवश्यकता बड़े से अधिक बच्चों को है। एक अनचाहा उपेक्षित बच्चा एक रोगी व समस्यापूर्ण बच्चा ही नहीं, अपराधी भी बन सकता है। मात्र थोड़े से स्नेह व दुलार-सुधार की समन्वित नीति से बच्चों को वह दिशा दी जा सकती है जिससे वे राष्ट्र के एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें।
वाङ्मय के इस खण्ड में अनेकानेक उदाहरणों के साथ माता-पिता, वातावरण एवं शिक्षा-दीक्षा से बालकों के विकास की प्रक्रिया का विवेचन अनेकानेक प्रतिपादनों के साथ प्रस्तुत किया गया है। बाल मनोविज्ञान पर पूज्यवर की बड़ी गहरी पकड़ दिखाई देती है एवं जन्म से पूर्व से लेकर किशोरावस्था तक के विकास के एक भी पक्ष को उनने छोड़ा नहीं है। निश्चित ही समाज एवं राष्ट्र के नवनिर्माण के विषय में चिन्तित रहने वालों के लिए यह वाङ्मय का एक खण्ड एक बहुमूल्य सामग्री का प्रस्तुतीकरण कर उनका सही मार्गदर्शन करेगा।
सबसे विलक्षणपक्ष तो इसका यह है कि इसमें सभ्यता एवं संस्कृति के समन्वित विकास का बड़ा ही व्यावहारिक प्रस्तुतीकरण है। सभ्यता की दृष्टि से बहिरंग जीवन में कैसा व्यवहार बालकों का होना चाहिए—शालीनता, सुव्यवस्था, समय की पाबन्दी, नागरिकों नियमों का पालन, सहकारिता आदि सद्गुणों को किस कुशलता के साथ बच्चों के जीवन में प्रविष्ठ कराया जाय इसका अमूलचूल शिक्षण इस खण्ड में उपलब्ध है। सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से बच्चों में जिज्ञासा की सहज वृत्ति का समाधान, संवेदनशीलता का जागरण व व्यावहारिक नियोजन, सहृदयता-परमार्थ-परायणता-आस्तिकता, बड़ों के प्रति सम्मान व कृतज्ञता आदि सद्प्रवृत्तियों के दैनन्दिनी जीवन में समावेश का बिन्दुवार शिक्षण इसमें पा सकते हैं।
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि राष्ट्र का आधार है समर्थ सशक्त भावी पीढ़ी, जो संस्कारवान हो। आज के आस्था-संकट व सांस्कृतिक प्रदूषणों के युग में यह एक अनिवार्य आवश्यकता है कि भौतिक विकास के साथ-साथ बालकों के भावनात्मक नवनिर्माण व सर्वांगीण विकास पर भी समान रूप से ध्यान दिया जाय। उस संबंध में क्या किया जाय, कैसे किया जाय, यह समग्र मार्गदर्शन वाङ्मय के इस खण्ड में मिलता है।
-ब्रह्मवर्चस...
सोमवार, 22 जून 2009
जीवन मे सेक्स का कितना महत्व ....?

प्यार शायद दुनिया के सभी प्राणियों को कुदरत की तरफ से दिया गया सबसे बेहतरीन तोहफा है। यही जीवन में रंग भरता है और जीवन तथा इस सृष्टि की निरंतरता को बनाए रखता है। शायद इसी वजह से प्राचीन हिन्दू परंपराओं में इसे जीवन के चार अहम उद्देश्य धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम के रूप में अहमियत दी गई है। प्राचीन हिन्दू धर्म जीवन में आने वाले इस आनंद की अनुभूति को उतना ही अहम मानता है, जितना कि ज्ञान की तलाश को।
प्यार यानी शरीर, मन और आत्मा
सेक्स को हम महज यौन क्रिया से नहीं जोड़ सके। यह दोनों लोगों के बीच गहरी आत्मीयता से पैदा होता है। जब दो लोग एक-दूसरे की परवाह करते हैं। जब हमारा शरीर, मन और आत्मा एक हो जाते हैं। यह तभी संभव होता है जब हम सामने वाले की भावनाओं की कद्र करना सीखते हैं।
सेक्स में प्यार की अहम भूमिका है। सबसे पहले एक शारीरिक क्रिया होने के नाते इसका हमारे शरीर से गहरा नाता है। महिलाओं में यौन क्रिया आक्सीटॉनिक को शरीर में प्रवाहित करती है। यह आक्सीटॉनिक उनके भीतर स्नेह और सेवा की भावना को मजबूत करता है। इतना ही नहीं यौन क्रिया हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है।
मन से गहरा रिश्ता है सेक्स का
सिर्फ शरीर नहीं मन से भी सेक्स का गहरा रिश्ता है। एक स्वस्थ सेक्स जीवन किसी भी स्त्री अथवा पुरुष के भीतर शांति और प्रसन्नता की भावना पैदा करता है। यह उनके आपसी रिश्तों को मजबूत करता है। यह प्रसन्नता की भावना उनके लिए लंबी उम्र और स्वस्थ जीवन का सबब भी बनती है।
प्यार किसी भी दंपति के लिए आनंद का सबब बनते हैं। मगर दांपत्य जीवन में प्यार का मतलब सिर्फ सेक्स से नहीं जोड़ना चाहिए। कई बार विभिन्न वजहों से आपके साथी में सेक्स के प्रति अनिच्छा भी पैदा हो सकती है। ऐसी स्थिति में हमें उसकी वजह को जानने और उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। यदि पार्टनर की इच्छा न हो तो सेक्स को कभी उस पर थोपने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि उसकी दिक्कतों को शेयर करते हुए उससे सहानुभूति का बर्ताव करना चाहिए।
तो याद रखिए... सेक्स आपके जीवन का एक अहम हिस्सा तभी बनेगा जब आप उसे प्यार की ऊर्जा से सराबोर रखेंगे। तभी आप एक स्वस्थ सेक्स जीवन, बेहतर संबंधों और मजबूत होते रिश्तों की तरफ बढ़ सकेंगे।
.....जानकारियां ..और अनुभव ही जीवन के प्रेरणा स्त्रोत है ...../
आपका भाई
अनिल महाजन ( पंडागरे )
बेहतर सेक्स के लिए बेहतर भोजन.....

जीवन में लाएं प्यार की ऊर्जा
जिस तरह अच्छा भोजन आपको शरीर और मन से स्वस्थ रखता है, ठीक उसी तरह अच्छा भोजन आपको सेक्स लाइफ में भी फिट रखता है। सारी दुनिया में खानपान से जुड़ी ऐसी तमाम मान्यताएं हैं, जिन्हें मनुष्य के यौन जीवन में प्रभावी माना जाता था। आज भी यह माना जाता है कि अपने खाने में थोड़ा सा परिवर्तन करके आप अपनी सेक्स लाइफ को बेहतर बना सकते हैं और यहां तक कि बहुत सी यौन दुर्बलताओं पर काबू पा सकते हैं। आइए एक नजर डालें कुछ इसी तरह की खानपान परंपराओं पर जो कि अनुभव की कसौटी पर भी खरी साबित हुई हैं।
शहदः फारसी कहावत के मुताबिक कोई भी जोड़ा लगातार तीस दिनों तक शहद और पानी का सेवन करता है तो उनकी वैवाहिक जीवन बहुत सुखमय और स्वर्गिक आनंद से भरा हुआ होता है। दरअसल इस मान्यता के पीछे वैज्ञानिक आधार यह है कि शहद में उच्च गुणवत्ता वाले अमीनो-एसिड और कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं जो दंपति को लंबी यौनक्रिया के लिए पर्याप्त ऊर्जा प्रदान करते हैं।
गाजरः इसे पुरुषों में यौन शक्ति बढ़ाने वाला माना जाता है। लंबे समय से गाजर का इस्तेमाल पु्रुषों की यौन क्षमता को मजबूती प्रदान करने में होता आया है। माना जाता है कि गाजर में मौजूद विटामिन्स का सामंजस्य व्यक्ति के स्नायु तंत्र को मजबूत बनाता है और व्यक्ति के जीवन में यौन सक्रियता लाता है।
सरसों: वर्षों से सरसों को सेक्सुअल ग्लैंड्स के लिए लाभकारी माना जाता है। मान्यता है कि सरसों के इस्तेमाल से स्त्री-पुरुष में यौन भावना को बढ़ाता है।
अदरकः इसकी तीखी खुशबू और स्वाद का यौन भावना से सीधा रिश्ता है। इसमें मौजूद तत्व व्यक्ति के भीतर रक्त संचार को तेज करते हैं। इसीलिए इसे हर लिहाज से एक बेहतर सेक्स उत्प्रेरक माना जाता है।
चाकलेटः इसमें मौजूद तत्व मस्तिष्क से एक खास तरह के हारमोन के रिसाव को प्रेरित करते हैं। इस हारमोन की मौजूदगी व्यक्ति में शांति और आनंद की भावना को लाता है, जो कि सेक्स उत्प्रेरक का काम करता है। आम तौर पर डार्क चाकलेट एक बेहतर सेक्स उत्प्रेरक का काम करती है।
समुद्री भोजन
यह लिस्ट काफी लंबी हो सकती है। बहुत सी खाने-पीने की चीजें सीधे यौन शक्तिवर्धन से जुड़ी हुई मानी जाती हैं। आम तौर पर समुद्री भोजन को एक बेहतर सेक्स उत्प्रेरक माना जाता है। जहां एक तरफ सेक्स क्षमता को बढ़ाने में इस तरह की बहुत सी खानपान से जुड़ी मान्यताएं काफी कारगर साबित हुई हैं वहीं दूसरी तरफ इस बारे में किसी तरह की वैज्ञानिक जागरुकता के अभाव में भ्रामक धारणाएं भी कम नहीं हैं।
कुछ भ्रामक धारणाएं
इन भ्रामक धारणाओं में बाघ व कछुए का मांस तथा स्पेनिश फ्लाई को यौन शक्तिवर्धक मान लिया गया है। इन धारणाओं से जहां बाघ और कछुए जैसी खतरे में मानी जाने वाली प्रजातियों को मारकर उनका मांस चोरी-छिपे बेचा जाता है, वहीं स्पेनिश फ्लाई में मौजूद जहरीले तत्व थोड़ी देर के लिए यौन उत्तेजना तो देते हैं मगर वे शरीर तथा मनुष्य की सेक्स क्षमता को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए बेहतर होगा कि बेहतर सेक्स के लिए स्वास्थ्यवर्धक खाने की आदत डालें। बेहतर स्वास्थ्य बेहतर सेक्स की कुंजी है।
मित्रो - आप तक बेहतर जानकारियां पहंचाने का मेरा कर्तव्य है !
आपका भाई
अनिल महाजन ( पंडागरे )
रविवार, 21 जून 2009
नया भारत गढ़ो.......?

भूमिका
स्वाधीनताप्राप्ति के बाद से भारत की जनता में, विशेषकर नवयुवकों में, राष्ट्र को नये ढंग से गढ़ने की दिशा में सर्वत्र प्रबल उत्साह दिखाई दे रहा है। यह बात अत्यन्त सराहनीय है। तथापि, यह कार्य हाथ में लेने के पहले हमें इस बात की स्पष्ट धारणा होनी चाहिए कि भावी भारत किस प्रकार गढ़ा जाय। जो चित्र अंकित करना हो उसका स्पष्ट स्वरूप मानसनेत्रों के सम्मुख लाने के पश्चात् ही चित्रकार उसे पट पर उतारता है। इसी प्रकार किसी इमारत का निर्माण कार्य आरम्भ करते समय इंजीनिअर पहले इस विषय की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेता है कि वह ईमारत किस उद्देश्य से बनाई जा रही है-वह पाठशाला है या अस्पताल, कचहरी है या रहने का मकान। फिर वह नक्शा खींचता है और उसके अनुसार प्रत्यक्ष निर्माण कार्य आरंभ करता है। हमें भी राष्ट्र का गठन कार्य आरम्भ करने से पहले, सर्वप्रथम भावी भारत के स्वरूप के संबंध में स्पष्ट धारणा कर लेनी चाहिए। क्या हमें भारत को एक महान् फौजी राष्ट्र बनाना है ? कदापि नहीं, क्योंकि आज तक कोई भी फौजी शासन अधिक काल नहीं टिक पाया। हिटलर और मुसोलिनी का ही परिणाम देखो।
हमारा राष्ट्र गरीब है। अपने बांधवों की भूख मिटाने के लिए हमें धन चाहिए किन्तु क्या केवल रोटी के टुकड़े से हमारी समस्या हल हो सकेगी ? इतनी वैभवसंपन्नता के बावजूद क्या अमेरिका और उस तरह के अन्य उन्नत राष्ट्रों के लोगों को मन की शांति और सुख मिला है ? ऐसा तो नहीं दिखाई पड़ता। इनमें से कुछ देशों के नवयुवकों की ओर देखो-सम्पन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन देशों में कितने ही युवक और युवतियाँ आज घोर निराशा के शिकार बने हुए हैं। जीवन में अर्जन करने योग्य कुछ भी दिखाई न देने के कारण वे कैसे उद्देश्यहीन बने भटक रहे हैं। उनमें से कुछ तो बड़े रईस हैं। पर जीवन का कोई उद्देश्य न रहने के कारण वे सदा एक प्रकार की भयानक उद्देश्यहीनता महसूस कर रहे हैं। हमें फौजी सामर्थ्य चाहिए परन्तु, वह अपनी स्वाधीनता की सुरक्षा के लिए-न कि फौजी अपने पड़ोसियों को लूटने के लिए। उसी प्रकार हमें धन चाहिए अपने गरीब बांधवों का पेट भरने के लिए-किन्तु धनोपार्जन हमारे राष्ट्र का आदर्श कभी नहीं बन सकता। इन दोनों बातों के अतिरिक्त हमें और एक विशेष बात की आवश्यकता है-वह है शांति। भला वह कौन सी वस्तु है जो हमें शक्ति और समृद्धि के साथ ही शांति भी दे सकेगी ?
अपने प्राचीन इतिहास का अध्ययन कर हमें देखना चाहिए कि अशोक, चन्द्रगुप्त, कनिष्क आदि राजाओं के शासनकाल में शक्ति-सामर्थ्य, समृद्धि तथा सुख, सभी बातों में भारत कितना उन्नत था। यह स्पष्ट ही है कि वैदिक तथा बौद्ध युग हमारे सम्मुख जो महान् आदर्श थे वही हमारे अतीत के गौरव के लिए कारणीभूत हैं। आज हमारी अवनति कैसे हुई, हमारा पतन क्यों हुआ, इसका कारण हमें ढूँढ़ निकालना चाहिए। अतएव भावी भारत का गठन करते समय हमें, जिन आदर्शों ने हमें उन्नत एवं महान् बनाया उनका स्वीकार करना चाहिए तथा जिन बातों के कारण हमारी अवनति हुई उनका त्याग करना चाहिए। साथ ही, हमें कुछ ऐसे नये विषयों का भी ग्रहण करना चाहिए, जो उस युग में उपलब्ध नहीं थे। उदाहरणार्थ-साइन्स और टेकनॉलॉजी।
आज कल हम विज्ञान की खूब दुहाई देते हैं। हम कहा करते हैं-यह बात विज्ञानसंगत नहीं है, यह गलतफहमी है, आदि। किन्तु अपने अतीत काल की ओर बिलकुल ध्यान न दे, उसमें क्या अच्छा था या उसमें कौन सी विशेषता थी जिसके कारण हमारा राष्ट्र गत तीन हजार वर्ष तक गौरवपूर्वक टिका रहा यह समझने का बिलकुल प्रयत्न न करते हुए हम उन पाश्चात्य आदर्शों के पीछे दौड़ते हैं जो ज्यादा से ज्यादा दो सौ वर्ष पहले अस्तित्व में आये और जो आज तक युग की कसौटी में खरे नहीं उतरे। क्या इस प्रवृत्ति को वैज्ञानिक कहा जा सकता है ? क्या पाश्चात्य राष्ट्रों की समस्याओं को सुलझाने में वे आदर्श कभी समर्थ हुए हैं ? क्या उन आदर्शों के कारण उन राष्ट्रों को कभी सुख-शांति मिली है ? ऐसा तो नहीं दिखाई देता। फिर हम इन आदर्शों के पीछे क्यों दौड़ें ?
हम मनुष्य हैं। भगवान ने हमें विचारशक्ति इसलिए दी है कि हम उसका यथायोग्य उपयोग करें, इसलिए नहीं कि जिस प्रकार पशुओं को चाहे जो कोई हाँक ले जाता है, उसी प्रकार कोई भी आकर जोरशोर के साथ कुछ कहने लगे और हम चुपचाप उसके पीछे हो लें। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि हमें अपने अतीव एवं वर्तमान काल के सभी तथ्यों और जानकारियों का संग्रह करना चाहिए, उन पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए और उन्हीं के आधार पर भविष्य की योजना बनानी चाहिए। हमें केवल भावनाओं के द्वारा परिचालित नहीं होना चाहिए।
सर्वप्रथम सब से आवश्यक बात है चरित्र। चरित्र के सिवा कोई भी महान् कार्य साध्य नहीं होगा। महात्मा जी की ओर देखो। अपने चरित्र के बल पर उन्होंने सारे राष्ट्रों को किस प्रकार अपने हाथ में ले लिया और अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया। इसके लिए उन्होंने तोपें, ऑटम बाँब आदि का उपयोग नहीं किया। अतएव यदि हममें भारत को महान् बनाने की इच्छा हो तो हमें सर्वप्रथम अपना चरित्र निर्माण करना होगा। फिर अपनी विचारशक्ति का उपयोग कर हमें भारत को किस प्रकार गढ़ना है इसका योग्य अध्ययन करने के बाद ही कार्य आरम्भ करना चाहिए-फिर यदि उस प्रयत्न में हमें प्राणों का भी बलिदान करना पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए। इस प्रकार के अध्ययन के लिए स्वामी विवेकानन्द का साहित्य हमारे लिए अत्यन्त मार्गदर्शक सिद्ध होगा। वह हमें भारतीय संस्कृति एवं भारतीय आदर्शों की महानता का परिचय करा देगा।
स्वामी विवेकानन्द के साहित्य से संकलित यह पुस्तक, भारत की वर्तमान अवनति के कारण, उसकी वर्तमान परिस्थिति एवं उसके पुनरुज्जीवन के उपाय के संबंध में स्वामीजी के विचारों का दिग्दर्शन करा देगी। आशा है, महत्तर भारत गढ़ने की महत्त्वाकांक्षा रखनेवाले हमारे नवयुवकों के लिए यह पुस्तक सहायक सिद्ध होगी।
हमारा पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्य-भूमि है। यहीं बड़े बड़े महात्माओं तथा ऋषियों का जन्म हुआ है, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदि काल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है।1
प्रत्येक राष्ट्र की एक विशिष्टता होती है, अन्य सब बातें उसके बाद आती हैं। भारत की विशिष्टता धर्म है। समाज-सुधार और अन्य सब बातें गौण हैं।2
(हमारी) जाति अभी भी जीवित है, धुकधुकी चल रही है, केवल बेहोश हो गयी है।......देश का प्राण धर्म है, भाषा धर्म है तथा भाव धर्म है। तुम्हारी राजनीति, समाजनीति, रास्ते की सफाई, प्लेग निवारण, दुर्भिक्ष पीड़ितों को अन्नदान आदि आदि चिरकाल से इस देश में जैसा हुआ है, वैसे ही होंगे अर्थात् धर्म के द्वारा यदि होगा तो होगा अन्यथा नहीं। तुम्हारे रोने-चिल्लाने का कुछ भी असर न होगा।3 अत: यदि तुम धर्म का परित्याग करने की अपनी चेष्टा में सफल हो जाओ और राजनीति, समाजनीति या किसी दूसरी चीज को अपनी जीवन-शक्ति का केन्द्र बनाओ, तो उसका फल यह होगा कि तुम एकबारगी नष्ट हो जाओगे।4
हे भारत उठो जागो

‘‘यह देखो, भारतमाता धीरे-धीरे आँखें खोल रही है।
वह कुछ देर सोयी थी।
उठो, उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमण्डित करके भक्तिभाव से उसे उसके चिरन्तन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो !’’
स्वामी विवेकानन्द
स्वदेश-मंत्र
हे भारत ! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती है; मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं; मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन, और जीवन, इन्द्रिय-सुख के लिए—अपने व्यक्तिगत सुख के लिए—नहीं है, मत भूलना कि तुम जन्म से ही ‘माता’ के लिये बलिस्वरूप रखे गए हो; तुम मत भूलना कि तुम्हारा समा उस विराट महामाया की छाया मात्र है; मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार और मेहतर तुम्हारे रक्त हैं, तुम्हारे भाई हैं। वे वीर ! साहस का आश्रय लो। गर्व से कहो कि मैं भारतवासी दरिदज्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी—सब मेरे भाई हैं, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत की देव-देवियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फुलवारी और मेरे बुढ़ापे की काशी है। भाई, बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण से मेरा कल्याण है; और रात-दिन कहते रहो—‘‘हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे; मुझे मनुष्यत्व दो, माँ ! मेरी दुर्बलता और कामरूपता दूर कर दो। माँ मुझे मनुष्य बना दो।’’
-स्वामी विवेकानन्द
अमृत मंत्र
हे अमृत के अधिकारीगण !
तुम तो ईश्वर की सन्तान हो,
अमर आनन्द के भागीदार हो,
पवित्र और पूर्ण आत्मा हो !
तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो !...
उठो ! आओ ! ऐ सिंहो !
इस मिथ्या भ्रम को झटककर
दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो।
तुम जरा-मरण-रहित नित्यानन्दमय आत्मा हो !
-स्वामी विवेकानन्द
शनिवार, 20 जून 2009
गृहस्थ: एक तपोवन

‘धन्यो गृहस्थाश्रम:’ कहकर हमारे ऋषि-मुनियों ने चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही धन्य कहे जाने योग्य है, ऐसा श्रुति में कहा है। जिस तरह समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी तरह सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं। वस्तुत: किसी भी समाज या राष्ट्र के विकास के लिए परिवार संस्था का स्वस्थ, समर्थ व सशक्त होना जरूरी है। यह सहजीवन के व्यावहारिक शिक्षण की प्रयोगशाला है। बिना किसी बाह्य दण्ड, भय या कानून के चलने वाली संस्था एकमात्र ऐसी संस्था है जो आनुवांशिक संस्कारों एवं पारस्परिक विश्वास पर निर्भर रह, अविच्छृंखल स्थिति में न जाकर सतत गतिशील रहती आयी है। बिना स्वार्थों का त्याग किए सहजीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती एवं त्याग, सहिष्णुता, सेवा की धुरी पर यह संस्था मात्र भारतीय संस्कृति की ही विशेषता है एवं सदा रहेगी।
परमपूज्य गुरुदेव ने गृहस्थाश्रम को समाज का सुनागरिक देने की खान मानते हुए इसे मानते एक आदर्श समाज की अनिवार्य आवश्यकता माना है। मनुष्य की सहज वृत्ति कामवासना को पति-पत्नी में एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यनिष्ठा में परिवर्तित कर कामोपभोग को एक सांस्कृतिक संस्कार बनाकर सामाजिक मूल्य का रूप देना गृहस्थाश्रम की ही देन है। गृहस्थाश्रम कामोपभोग का प्रमाण पत्र नहीं, अपितु संयम-ब्रह्मचर्य मूलक होने का प्रतीक माना गया है।
गृहस्थ तप और त्याग का जीवन कहा गया है। इस धर्म के परिपालन के लिए किया गया कोई भी प्रयास किसी तप से कम नहीं है। गृहस्थ में स्वयं को अपनी वृत्तियों पर अंकुश लगाना पड़ता है। चिकित्सा, भोजन, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए सब प्रबन्धन करने हेतु अपना पेट काट कर सारी व्यवस्था करनी होती है, एक जिम्मेदारी से भरा जीवन जीना पड़ता है। सचमुच गृहस्थाश्रम एक यज्ञ है, जिसमें प्रत्येक सदस्य उदारता पूर्वक सहज ही एक दूसरे के लिए कष्ट सहते हैं, एक दूसरे के लिए त्याग करते हैं। गृहस्थाश्रम समाज के संगठन, मानवीय मूल्यों की स्थापना, समाजनिष्ठा, भौतिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक, मानसिक विकास का भी क्षेत्र है एवं इस प्रकार समाज के व्यवस्थित स्वरूप का मूलाधार है।
श्रेष्ठ संतान, सुसंतति देने की खान गृहस्थ धर्म को ही माना गया है। भक्त, ज्ञानी, सन्त, महात्मा, महापुरुष, विद्वान, पण्डित गृहस्थाश्रम से ही निकल कर आते हैं। उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, ज्ञानवर्धन गृहस्थाश्रम के बीच ही हो पाता है। परिवार के बीच ही महामानव प्रशिक्षण पाकर निकलते व किसी समाज के विकास का निमित्त बन पाते हैं। इसी कारण इस संस्था के महत्त्व को सर्वोपरी बताते हुए पूज्यवर वाङ्मय के इस खण्ड में दामपत्य जीवन के निर्वाह, सफल दाम्पत्य, जीवन के मूलभूत सिद्धान्त, संतानों की संख्या नहीं स्तर बढ़ाया जाय तथा दाम्पत्य जीवन को एक स्वर्ग जैसा मानते हुए वैसा जीवन जिया जाय, इन सभी पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं।
आज इस संस्था में विघटन होता दीख पड़ता है। मध्यकाल में आई कुरीतियों के कारण कच्ची उम्र में विवाह, छूँछ हो गए जीवनी-शक्ति विहीन शरीरों द्वारा कमजोर संततियों को जन्म, लड़का-लड़की में भेद के कारण संतानों की बढ़ती संख्या, पारस्परिक मनोमालिन्य व द्वेष के कारण नारकीय वातावरण, रूप-सज्जा व कामुकता पर अधिक ध्यान होने से विवाहेतर संबंधों में अधिकता, यौन स्वच्छन्दता से लेकर पति-पत्नी दोनों की निजी मनोवैज्ञानिक त्रुटियों के कारण बोझ बन गया गृहस्थी का संसार-यह कुछ ऐसा विकृत स्वरूप है जिस पर आज सर्वाधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। बढ़ती आधुनिकता व फैशन फिजूलखर्ची की होड़ में अधिकाधिक परिवार संस्कार विहीन, दरिद्र एवं सुख-शांति से विहीन होते देखे जा सकते हैं। कैसे वह पुरुषार्थ किया जाय कि संस्कारों को पुनर्जीवित करनेवाली यह संस्था पुन: अपना पूर्व वाला स्वरूप ले सके, यह आग युग पुरुष पूज्य गुरुदेव के अन्त:करण में सतत धधकती रही। उसी आग को सुव्यवस्थित रूप देते हुए उनने वाङ्मय के इस खण्ड में गृहस्थ रूपी तपोवन के मापदण्ड बताए एवं व्यावहारिक तथ्य समझाए हैं।
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि दाम्पत्य प्रेम एवं सहयोग की सफलता में जब पुरुष को पहल करनी पड़ेगी, क्योंकि चिरअतीत में पुरुषों के अंत:पुरों- हरमों में लाखों स्त्रियों के उत्पीड़न सहे व आँसू बहाते दिन बिताए हैं। वे लिखते हैं कि अब पुरुषों को ही आगे आना होगा, प्रायश्चित करना होगा ताकि इतने लम्बे समय तक शोषण सहती आ रही स्त्रियाँ न्याय पा सकें। परमपूज्य गुरुदेव का नारी जाग्रति अभियान पूर्णत: इसी प्रकार टिका है कि नर न नारी एक ही गाड़ी के दो पहियों की तरह एक साथ मिलकर दायित्व निर्वाह करते हुए एक सफल समर्थ गृहस्थ संस्था का निर्माण कर प्रजातंत्र को सशक्त व रूढ़िवादिता-प्रतिगामिता से मुक्त बनाएँ।
आज समाज में अविवाहित कन्याओं की उम्र भी बढ़ती जाती है एवं संख्या भी। सुयोग्य जोड़ियाँ न मिल पाने के कारण अन्तर्जातीय विवाह के लिए मानसिकता न बन पाने के कारण विवाह प्रक्रिया पश्चिम की तरह एक खिलवाड़ बनती चली जा रही है। एक भारी दायित्व जिसे माना गया है यदि वह कामवासना की पूर्ति का एक माध्यम मात्र बन जायगा तो समाज जीवित कैसे रहेगा-जिम्मेदार नागरिक कहाँ से पैदा होंगे ? यह भी ज्वलन्त प्रश्न ‘गृहस्थ योग’ रूपी इस शोध प्रबन्ध स्तर के खण्ड में रखे व उनके समाधान दिए गए हैं। यह खण्ड आज के टूटते समाज के नैतिक मूल्यों पर करारी चोट कर सामयिक समाधान देता है तथा एक ऐसी व्यवस्था की बात करता है जिससे परिवार संस्था सशक्त, समर्थ बने एवं राष्ट्र पुन: अपनी गौरव-गरिमा को प्राप्त कर सके।
ब्रह्मवर्चस .....
संकलन .......
अनिल महाजन ( पंडागरे )
विवाह और दाम्पत्य जीवन का निर्वाह

विवाह खिलवाड़ नहीं, भारी दायित्व है
सड़े-गले विचारों वाले दकियानूसी समुदाय में यह अपेक्षा की जाती है कि विवाह के उपरान्त जल्दी ही सन्तान होनी चाहिए। उसे सौभाग्य समझा जाता है। विवाह हुए कुछ समय निकल जाये और सन्तान न हो तो चिन्ता की जाने लगती है। वधू को बन्ध्या कहकर उस पर दोषारोपण का सिलसिला चल पड़ता है। दूसरा विवाह कर लेने की बात सोची जाने लगती है। खाली गोद नारी को अभागी कहा जाने लगता है। जबकि ऐसे अधिकांश मामलों में पुरुष की दुर्बलता ही आधारभूत कारण होती है। लड़कों में बचपन से ही कुटेबें पड़ जाती हैं और वे अपना पुरुषत्व खो बैठते हैं। ऐसी दशा में पुरुष की हीनता का दोष नारी के सिर पर मढ़ने का रिवाज ही व्यापक होते देखा गया है। जिनके जल्दी-जल्दी कई बच्चे हो जाते हैं उन्हें भाग्यवान कहा जाता है। लड़के हुए तो सोचा जाता है कि कमाई से घर भरेगा। लड़कियाँ होने लगें तो लड़कों की प्रतीक्षा में उस संदर्भ में और भी जल्दबाजी के प्रयोग किये जाते हैं। कई बार तो इसी प्रयोग में ढेरों लड़कियों से घर भर जाता है और उनके लिए जननी को लज्जित-तिरस्कृत किया जाता है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या विवाह के उपरान्त जल्दी ही बच्चे होने चाहिए और उनकी संख्या बढ़ती ही रहनी चीहिए ? समय को देखते हुए यह चिन्तन सर्वथा अनुपयुक्त ही कहा जा सकता है। ईसा के चार हजार वर्ष पूर्व संसार भर में मनुष्य की जनसंख्या पाँच करोड़ के करीब थी। अब वह बढ़कर 600 करोड़ हो गयी है। यह बढ़ोत्तरी यदि इसी चक्रवृद्धि गति से चलती रही तो अगले पचास वर्ष में यह गणना 1000 करोड़ तक पहुँच सकती है।
वर्तमान स्थिति का पर्यवेक्षण करने से पाया गया है कि जितने मनुष्य अभी हैं उनके लिए खाद्य पदार्थ कम पड़ रहे हैं। ईधन बेतहाशा घट रहा है। लकड़ी, कोयला, कोल, बिजली आदि को अधिक मात्रा में उपलब्ध किये जाने की पग-पग पर आवश्यकता अनुभव की जाती है।
बढ़ती हुई आबादी के लिए रोजी, शिक्षा, चिकित्सा, मकान आदि सभी जीवनोपयोगी वस्तुएँ कम पड़ती जाती हैं। अनुमान है कि यह संकट अगले पचास वर्ष में अत्यधिक भयावह रूप धारण कर लेगा। कारखानों की बढ़ोत्तरी से हवा और पानी विषाक्त होता चला जाता है। खाद्य के साथ खनिजों की भी कमी पड़ेगी। धरती का जितना दोहन संभव है, उसकी चरमसीमा पर जा पहुँचा है। जनसंख्या बढ़ते रहने पर दुर्भिक्ष पड़ेंगे। बेरोजगारी, बीमारी, अशिक्षा का अनुपात बढ़ेगा। ऐसी दशा में प्रगति के लिए किये जाने वाले सभी प्रयास ओछे पड़ते जायेंगे। मनुष्य जाति क्रमश: मुसीबत के अधिक गहरे दलदल में फँसती जायगी।
विज्ञजनों की पुकार है कि अब धरती का बोझ न बढ़ाया जाय। सन्तानोत्पादन रोका जाय। इस कारण जो भारी विपत्ति बढ़ रही है उसे यहीं पर विराम दिया जाय। जो समझाने पर नहीं समझते उन्हें कड़ा दण्ड दिया जाय। जिस भी उपाय से प्रजनन रुकता हो उसे काम में लाया जाय। परिवार नियोजन की आवश्यकता जनसाधारण को समझाने के लिए सरकारें विपुल धन खर्च कर रही हैं, पर अनगढ़ों की कमी नहीं। वे अपने लिए स्वयं विपत्ति मोल लेने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह भारी चिन्ता का विषय है और भयानक दुर्गति की संभावना का भी। लगता है कि नासमझी की विकल्प प्रताड़ना ही हो सकती है। भले ही वह शासन द्वारा, समाज द्वारा या प्रकृति द्वारा की जाय।
कुछ समय पहले यह समझा जाता था कि विवाह एक अनिवार्य आवश्यकता है। जिसे हर किसी को करना चाहिए। अरोग्य लड़कियों और लड़को भी किसी प्रकार इस बंधन से बाँध दिया जाता था। विवाह का अर्थ यौनाचार की खुली छूट भी है। यौनाचार का प्रतिफल है सन्तानोत्पादन। यह कर्म चल पड़े तो फिर बहुत समय तक चलती ही रहता है। एक-एक जोड़ा कई-कई सन्तानें जनता है। उनकी संख्या कई बार तो दस बारह तक पहुँचती है। औसत प्रजनन चार-पाँच तक तो होता ही है। इनमें से दो-तीन मर भी जायें तो भी हर पचास वर्ष में आबादी दूनी हो जाती है और फिर वह चक्रवृद्धि दर से बढ़ती है। इनमें से अधिकांश अनपढ़ और अशिक्षित होते हैं।
संकलन .......
अनिल महाजन ( पंडागरे )
शुक्रवार, 19 जून 2009
नारी के प्रति द्र्स्टीकोण बदलिए....?

नारी को पददलित बनाकर मनुष्य ने क्या पाया ?
नारी क्या सदा पददलित ही बनी रहेगी ?
अशिक्षा, घर की चहारदिवारी का कारावास, पर्दा-प्रथा, बहुप्रजनन, कामिनी और रमणी के रूप में साहित्य तथा कला में चित्रण आदि कितने ही कुचक्र हैं जो नारी को छलने के लिए सदियों से चले आ रहे हैं और नित नये ढंग से निकलते जा रहे हैं। इन कुचक्रों के कारण दिनोंदिन नारियों की होती जा रही दुर्दशा को देखकर यह विचार आता है कि पुरुष कहीं उसकी अपार क्षमता और असंदिग्ध योग्यता को देखकर खौफ तो नहीं खा गया है और उसकी क्षमताओं तथा योग्यताओं को विकसित न होने देने के लिए तरह-तरह के षड्यन्त्र रचने में अपनी बुद्धि का प्रयोग करने लगा है ?
नाना विधि बन्धनों और प्रतिबन्धों के कारण यह कहना पड़ रहा है कि पुरुष का व्यवहार नारी के प्रति एक शत्रु जैसा रहा है और वह उसे मोहक षड्यंत्रों में फँसाकर अबोध तथा अबला बनाये रखने में सफल हुआ हो। अच्छा तो यह है कि उसे इन कुचक्रों में न फँसाया जाय और उसकी क्षमताओं तथा योग्यताओं को विकसित होने देकर समाज की गाड़ी को प्रगति के पथ पर दौड़ाया जाय, पर जहाँ झूठे अहं का सवाल है, वहाँ समाज को कितनी हानि उठानी पड़ रही है, यह विचार करने का समय किसके पास है ?
उँगलियों पर गिने जाने योग्य है, उन महिलाओं की संख्या, जिन्होंने अपनी क्षमताओं की पहचान और उत्पन्न की गयी बाधाओं की परवाह किये बिना आगे बढ़ीं, पर अधिकांश 99 प्रतिशत कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी कि महिलाएँ दीन-हीन अवस्था में हैं, अबला है, आश्रिता हैं, दासी हैं और एक विचारक के तीक्ष्ण शब्दों में ‘सुरक्षित वेश्या’ है।
नारी की क्षमता को अवरुद्ध रखने में सबसे बड़ा प्रतिबन्ध है-शिक्षा का। अशिक्षा नारी के लिए एक षड्यन्त्र ही है और वह षड्यन्त्र इतने सुन्दर ढंग से रचा गया है, उसके पीछे इतने बढ़िया तर्क दिये गये हैं कि पुरुष की नियत पर सन्देह करना ही पड़ता है। उदाहरण के लिए कहा जाता है-‘‘नारियों के लिए पढ़ने की क्या जरूरत, उन्हें कोई नौकरी-चाकरी तो करनी नहीं, न किसी घर की मालकिन बनना है। उसके लिए तो घर ‘गृहस्थी’ का काम सीख लेना ही पर्याप्त है।’’
अहा ! कितना सुन्दर तर्क है, पर क्या शिक्षा प्राप्ति का एकमात्र उद्देश्य नौकरी करना ही है। लोग जानते हैं कि आजकल पढ़े-लिखे लोगों की संख्या इतनी अधिक है कि आज जो बच्चे पढ़ रहे हैं और जब पढ़कर बड़े हो जायेंगे, तब उनके लिए नौकरी मिल जायेगी इसकी दस प्रतिशत भी उम्मीद नहीं है। पढ़-लिखकर नौकरी करने का प्रचलन तो ब्रिटिश काल में हुआ, उससे पहले क्या सभी लोग अशिक्षित थे ? बल्कि उस समय की शिक्षा ने जितना ज्ञान और जितना साहित्य दिया, उतना प्रगल्भ तथा उच्चस्तर आज के शिक्षा स्तर में कहीं दिखाई ही नहीं देता। प्राचीनकाल में कौन-सी नौकरियाँ थीं, कौन से विभाग थे ? कौन से पद थे ? जिन्हें प्राप्त करने के लिए लड़के और लड़कियों की शिक्षा पर समान रूप से ध्यान दिया जाता था।
‘‘किसी घर की मालकिन नहीं बनना है।’’ तर्क भी निराधार है। एक तो प्रत्येक कन्या को विवाह के बाद गृहिणी बनना पड़ता है और गृहिणी घर की मालकिन ही तो होती है। घर का संचालन, घरेलू कामकाजों को निबटाने में ही उतनी योग्यता और चतुरता की आवश्यकता पड़ती है, जितनी कि किसी व्यवसाय के प्रबन्ध में। अशिक्षित नारी की गृह-व्यवस्था और शिक्षित नारी की गृह-व्यवस्था में जमीन आसमान का अन्तर देखा जा सकता है और यह कहना भी अनुपयुक्त होगा कि घर का काम-काज सीख लेना ही पर्याप्त है, क्योंकि घरेलू काम-काज निबटाने में ‘‘मुश्किल’’ से चार-छह घण्टे लगते हैं। इसके बाद स्त्रियाँ फालतू हो जाती हैं। यदि वे पढ़ी-लिखी हों तो अपने फालतू समय का उपयोग ज्ञानवर्द्धन में कर सकती है अन्यथा खाली बैठी दो-चार स्त्रियाँ गपशप और दूसरों की भलाई-बुराई में ही अपना समय नष्ट कर डालती हैं। यदि कन्या-शिक्षा नारी-शिक्षा का समुचित प्रबन्ध किया जाय तो उसका लाभ केवल स्त्री को ही नहीं पूरे परिवार को मिलेगा। वह बच्चों का ढंग से पालन-पोषण कर सकती हैं, उनके व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए संस्कार डाल सकती हैं, घरेलू मामलों में अपनी बुद्धि से सही परामर्श दे सकती हैं।
द्वारा - गायत्री परिवार से संकलन
अनामिका पंडागरे
सुपुत्री
अनीता अनिल महाजन ( पंडागरे )
Administer
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!!! लोणारी कुनबी वेबपरिचायिका !!!
मंगलवार, 16 जून 2009
आपके मार्गदर्शन के बिना मेरा प्रयास अधुरा .....?
Social Activites & संदेश
आप सभी से मेरा अनुरोध है कि आप लोग वेबपरिचायिका के आशय एवं महत्व को समझे !
एवं अपनी अपनी प्रतिक्रिया हमें अवश्य दे ! ताकि मै आप सभी के विचार जान सकू ! और अगर मै कोई गलती कर रहा हूँ , तो उसे सुधार सकूँ , और मै अच्छा कर रहा हूँ , तो प्रोह्त्साहित होकर - आपके लिए और अपने समाज के लिए और भी अच्छा काम कर सकूँ !
धन्यवाद .....
आपका भाई
अनिल महाजन ( पंडागरे )
शनिवार, 13 जून 2009
!!!! लोणारी कुनबी वेबपरिचायिका !!!!

लोणारी कुनबी वेबपरिचायिका
अखिल भारतीय क्षत्रिय लोणारी कुनबी समाज के लिए यह अनमोल धरोहर आपके समक्ष है मुझे विश्वास ही नही पुरी उम्मीद है कि समूचे भारत एवं विदेशो मे बसे कुनबी समाज बंधुओ को आपसी परिचय एवं संगठित करने के प्रयास स्वरूप http://www.lonarikunbi.in/ वेबपरिचायिका समाज के लिए एक अनमोल कृति अविस्मर्णीय , संगृहीत धरोहर साबित होगी !
आपका भाई
अनिल महाजन ( पंडागरे )
Administer
!!! लोणारी कुनबी वेबपरिचायिका !!!
गुरुवार, 11 जून 2009
बुधवार, 10 जून 2009
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